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आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्
[ ३५६ तटबनराज्यामित्यर्थः । अत्रोत्प्रेक्षते-पार्वे निषण्णस्य द्वितीयभुबनस्य भुवर्लोकस्याप्युपरि निषीदन्तमिव । सूर्यताराद्यधिष्ठाननक्षत्रलोकरूपस्य तस्य पार्श्ववर्तित्वादिति भावः ॥३८॥
विमला-यहाँ ( कटक ) उपत्यकाभाग में (सीधा मार्ग न होने से ) सूर्य का रथ वक्र हो जाता है । (ताड़ के वृक्षों से मार्ग प्रतिरुद्ध होने के कारण उत्तम) तारागण ताड़ के वनों में इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं। अतएव मानों पार्श्ववर्ती द्वितीय भुवन ( जो सूर्य-तारादि का अधिष्ठान है ) के ऊपर यह सुवेल गिरि स्थित है ।। ३८ ।। तदेवाह--
अद्धच्छिण्णरविअरे असमत्तपत्तसमलचन्दमकहे । छिणकडए वहन्तं उद्धाअणिअत्तगरुडमग्गिअसिहरे ॥३६॥ [ अर्धच्छिन्नरविकरानसमाप्तप्रभूतसकलचन्द्रमयूखान् ।
छिन्नकटकान्वहन्तमुद्धावितनिवृत्तगरुडमागितशिखरान् ।।]
एवं छिन्नकटकाञ्शृङ्गविशेषान्वहन्तम् । किंभूतान् । अर्धे छिन्ना अवच्छिन्ना रविकरा यत्र तान् । अर्ध एव पर्याप्तत्वाद् एवमसमाप्ते एकदेश एव प्रभूताः सकलाः, सकलस्य पूर्णस्य वा, चन्द्रस्य मयूखा यत्र । एवमुद्धावितेन ऊर्ध्व प्रस्थितेन, अथ निवत्तेन, गरुडेन मागितमन्विष्टं शिखरमग्रं यस्य । तथा च सुवेलस्योऽवं प्रस्थाय गन्तुमशक्य त्वान्निवृत्तंन गरुडेनाप्यन्तरावर्तिछिन्नकटस्यैव शिखरं विश्रमाय न लभ्यत इति मागितपदसूचितमत्युच्चत्वम् । 'उप्पइअणिअत्त' इति पाठे उत्पत्तिनिवृत्तेनेत्यर्थः । 'दुरालोकं दुरारोहं कटकान्तरसंगतम्। भृगुप्रायं गिरेः शृङ्ग तच्छिन्नकटकं विदुः ॥३६॥
विमला-यह ( सुवेल ) छिन्न कटकों ( शृङ्गविशेष) को धारण किये है । इन शृङ्गों के अर्धभाग में ही सूर्य की किरणे अविच्छिन्न हो जाती हैं। पूर्णचन्द्र की किरणें इनके एक भाग में ही पर्याप्त हो जाती हैं। ऊध्र्वभाग को प्रस्थित ( किन्तु जाने में असमर्थ होने से ) लौटे हुये गरुड़ ( विश्रामार्थ ) इन शृङ्गों के अग्रभाग को खोजते ही रह गये ( किन्तु पा न सके )। विमर्श - 'छिन्नकटक' शृङ्गविशेष को कहते हैं । कहा भी गया है
'दुरालोकं दुरारोहं कटकान्तरसंगतम् ।
भृगुप्रायं गिरेः शृङ्ग तच्छिन्नकटकं विदुः ॥३६।। रत्नाधिक्यमाहसुरवहूण हिअअद्विपरअणवसार
साअरस्स रइअं मिव रअणवसारअम ।
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