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आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्
[३७५ विमला-यह ( सुवेल ) वनगजों के युद्ध-मर्दन को वहन अर्थात् सहन करता है, जिससे द्रुम टुट-टाट कर शुष्क हो गये हैं, लतायें उलट-पुलट कर गजों के शरीर में लिपट गयीं, अतएव गजों ने उन्हें तोड़-ताड़ कर भूतल पर ढेर कर दिया है तथा उस विमदं में पारस्परिक प्रहार से गजों के परिघाकार दांत (टूटकर ) गिरे पड़े हैं ॥६३॥ समुद्रजलसत्तामाह
मन्दरपहरुच्छलिए अज्जवि विस्थिण्णमणिपहम्मणिहत्ते । जलणिहिजलवोच्छेए अणिग्गामअरसे समुबहमाणम् ॥६॥ [ मन्दरप्रहारोच्छलितानद्यापि विस्तीर्णमणिप्रहर्म्यनिहितान् ।
जलनिधिजलव्यवच्छेदाननिगतामृतरसान् समुद्वहमानम् ॥]
मथनसमये मन्दरप्रहारेण उच्छलितान् जलनिधिजलस्य व्यवच्छेदाननेकदेशानचापि समुद्वहमानम् । किंभूतान् । विस्तीर्णे मणिप्रहफे मणिविशिष्टे विवरे निमग्नप्रदेशे निहितान् । एवम्, अनिर्गतोऽमृतरसो येभ्यः तानद्यापि सत्तानुमितमहत्त्वस्य मन्दरोच्छलितजलस्याधारतया विवरस्य महत्त्वेन सुवेलस्य महत्त्वं सुधामयतज्जलपानं च तत्रत्यानामुक्तम् ॥६॥
विमला-समुद्र-मथन के समय मन्दराचल के प्रहार से उछले हुये समुद्रसनिल के बहुत बड़े भाग को यह (सुवेल ) आज भी धारण किये हुये है, जो इसके मणियुक्त विवर में निहित है तथा (मथन से बच जाने के कारण आज तक) उसका अमृतरस उसमें से अलग नहीं हुआ-उसमें बचा ही रह गया है ॥६४॥ रामशरसत्तामाहजलसंखोहालग्गं वहमाणं विसमलग्गपत्तणणिवहम् । राहवसरसंघासं वज्जमुहक्खुडिअपक्खसेसं व ठिअम् ॥६५॥ [जलसंक्षोभालग्नं बहमानं विषमलग्नपत्रणानिवहम् ।
राघवशरसंघातं वज्रमुखोत्खण्डितपक्षशेषमिव स्थितम् ॥] एवं जलसंक्षोभात्समुद्र जलप्रेरणादालग्नं तटे संबद्धं राघवशरसंघातं वहमानम् । कि भूतम् । विषमं यथा स्यात्तथा लग्नः पत्त्रणायाः पक्षरचनाया निवहो यत्र तम् । जलतटयोरभिघातात्पत्त्रणाभङ्ग इति भावः । उत्प्रेक्षते-इन्द्रस्य वज्रमुखेन उत्खण्डितं पक्षशेषमिव स्थितम् । तथा च भग्नपत्त्रणाविशिष्टो राघवशारो न भवति, किंतु वज्रखण्डितः सुवेलपक्षशेष एवेत्यर्थः । पत्त्रणायाः पक्षसाम्येन तद्वत्तया शरेऽपि तदुपचारोऽत एव तट एव त स्थिति रिति भावः ॥६५॥
विमला-राम के द्वारा समुद्र पर बाण चलाये जाने पर समुद्र-सलिल के सुब्ध हो जाने से वह (बाण ) आकर इस ( सुवेल ) के तट में घुसा, जिसे यह
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