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सेतुबन्धम्
[नवम
इत्यपि कश्चित् । विघातो विस्तारः समूहो वा । भुवनविभागेऽपि विशेषणानां योजना पूर्ववत् ॥३२॥
विमला-यह ( सुवेल ) ऐसी कन्दराओं को वहन किये हैं, जो मानों तीनों भुवनों के विभागस्वरूप हैं; क्योंकि उनके एक भाग में समुद्र प्रविष्ट है ( अतएव यह पातालरूप हुआ ), इनमें नभमण्डल प्रकट है ( यह ऊर्ध्वलोकरूप हुआ), इनमें दशो दिशायें पर्याप्त हैं ( यह मर्त्यलोकरूप हुआ ) एवं ये कन्दरायें इतनी विस्तृत हैं कि सूर्य इनमें उदित होकर इन्हीं में अस्तंगत होता है ।। ३२ ।। निर्झरस्वादमाहउच्छलियोअहिभरिए थोअत्थोमोसरन्तणिवढजले।। आइमुहरे वहन्तं पुरोत्तलवणे सिहरणीसन्दे ॥ ३३ ॥ [ उच्छलितोदधिभृतान्स्तोकापसरन्निव्यूं ढजलान्
आदिमधुरान्वहन्तं पुरतोऽभिमुखलवणाञ्शिखरनिःस्यन्दान् ॥ एवं शिखराणां निःस्यन्दान्निर्झरान्वहन्तम् । कीदृशान् । उच्छलितेनोदधिना भृतान् तज्जलेन' पूर्णान् । एवं स्तोकं स्तोकमपसरन्ति शिखरेभ्यो बहिर्भवन्ति पश्चान्निव्यू ढानि संभूयोपचितानि जलानि येषु तान् । अल्पमल्पं निःसृत्य प्रचितस्वादित्यर्थः । अत एवादौ मूलभागे निर्झररूपत्वेन मधुरान् पुरतोऽभिमुखेऽने समुद्रक्षारयोगात् । अथवा दशायामादौ मधुरान् । निर्झरजलबाहुल्यात् पक्षाल्लवणाब्धिजलसंपर्कादेवेत्यर्थः ॥३३॥
विमला—यह ( सुवेल ) ऐसे शिखरनिर्झरों को वहन किये है , जो उछले हुए समुद्र के द्वारा जल से पूर्ण कर दिये गये हैं। उनमें जल पहिले थोड़ा-थोड़ा निकलता है, बाद में एकत्रित हो बढ़ जाता है, अतएव आदि (मूलभाग ) में वे मधुर हैं और सामने की ओर आगे बढ़ने पर ( समुद्र के क्षार जल के सम्पर्क से) खारे हो जाते हैं ॥ ३३ ॥ रत्नच्छविमाह
रअणच्छविहन्वन्तं वलन्तसेसपिहलफणविहन्वन्तम् । सरपरिवढिअकमलं कडप्रल आलग्गसूररहअक्कमलम् ॥३४॥ [ रत्नच्छविधाव्यमानं वलच्छेषपृथुलफणविधूयमानम् ।
सरःपरिवर्धितकमलं कटकलतालग्नसूररथचक्रमलम् ॥] एवं रत्नच्छ विभिर्धाव्यमानं प्रक्षाल्यमानम् । एवं तद्गौरवादेव वलद्भिः वक्री. भवद्भिः शेषस्य पृथुलैः फणैविधूयमानम् । यदा फणसंचारस्तदा केवलं कम्पमानमित्यर्थः । सरसि परिवधितानि कमलानि यत्र तम् । कटकवतिलतासु लग्नः सूर
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