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सेतुबन्धम्
[ सप्तम
कुछ न कुछ भीग ही जाते थे। पर्बतों के फेंक देने से उनके कन्धे अब विश्राम पा गये थे तथा पर्वतों को ढोते समय जो उनके मुख में गेरू आदि लग गये थे वे पाताल से निकली हुई गर्मी से हुये स्वेद से कर्दम बन गये थे ।॥२०॥ पुनः पर्वतपतनमाहविप्रलन्तोज्झरलहुआ पवण विहुव्वन्तपाअवुद्धपइण्णा । पवहि उद्ध मुक्का सिहरेहि पडन्ति सा प्ररम्हि महिहरा ॥२१॥ [ विगलन्निर्झरलघुकाः पवनविधूयमानपादपोर्ध्वप्रकीर्णाः ।
प्लवगैरूवमुक्ताः शिखरैः पतन्ति सागरे महीधराः ।।] प्लवगैरून्निभसो मुक्ता महीधरा अधोमुखत्वेन विगद्भिनिरैर्लघुका अपि सागरे शिखरभागैः पतन्ति । अत्र हेतुमाह--पवनैरन्त रिक्षचारिभिविध यमानपादपत्वादून मस्तकेन प्रकीर्णा विक्षिप्ताः । तथा च शिरोवर्तिवृक्षाणामप्रत्यूहपवनान्दोलनवशादासादितशिरोगुरुत्वात्तद्भागेनैव पतन्तीत्यर्थः ॥२१॥
विमला-वानरों द्वारा ऊपर से छोड़े गये पर्वत झरनों के विगलित होने से हल्के होकर भी शिखरों के बल ही सागर में गिरते थे, क्योंकि पवन-कम्पित बृक्षों से उनका शिरोभाग तब भी भारी ही रहता था और उसी के बल गिरना स्वाभाविक था ॥२१॥ गिरिमज्जनमार्गमाह
अस्थमिप्रसेलमग्गा भिण्णणि प्रत्तन्तसलिलपुजिग्रकुसुमा। होन्ति हरिपालकविला दाणसुअन्धुप्पवन्तगअदुमभङ्गा ॥२२॥ [ अस्तमितशैलमार्गा भिन्ननिवर्तमानसलिलपुञ्जितकुसुमाः ।
भवन्ति हरितालकपिला दानसुगन्ध्युत्प्लवमाना गजद्रुमभङ्गाः ॥ ]
अस्तमितानां जलमग्नानां शैलानां मार्गा भवन्ति । कीदृशाः । प्रथमं पर्वताभिघाताद्भिन्नाभ्यां द्विधाभूताभ्यामथ निवर्तमानाभ्यां सलिलाभ्यां पुजितानि राशीकृतानि कुसुमानि यत्र तथा। गिरिवृक्षकुसुमानि तत्र तत्र पर्यस्तानि भिन्नसलिलभागद्वयपरावृत्त्या वर्तुलीक्रियन्त इत्यर्थः । एवं च हरितालः कपिलाः। तेषामपि सलिले संपृक्तत्वात् । एवं दानेन मदजलेन सुगन्धयः सन्त उत्प्लवमाना उपरि घूर्ण माना गजद्रुमभङ्गा गजभग्नद्रुमखण्डा यत्र । यद्वा गजद्रुमो नागवृक्षस्तस्य खण्डा यत्र ते । तथा च पद्धतिरपि गिरीणामनुमेयवेति समुद्रस्य महत्त्वमुक्तम् । महतामस्तमनेऽपि चिह्न नापगच्छतीति सत्कर्मैव कर्तव्यमिति ध्वनिः ।।२२।।
विमला-प्रथम ( पर्वतों के अभिघात से ) जल दो भागों में विभक्त हो गया, जिससे पर्वतों के वृक्ष कुसुम चारों ओर बिखर गये किन्तु पुनः उसी जल के लौटने से वे वृक्षकुसुम जलमग्न पर्वतों के मार्ग में पुनः सञ्चित हो गये।
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