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सेतुबन्धम्
[ सप्तम
[ वर्धते प्लवगकलकलो वलति वलमानवडवामुखः सलिलनिधिः ।
पवननिरायतवृक्षाः पतन्त्यूर्वस्थितनिर्झरा धरणीधराः ।। पवनेन कपिवेगजेन निरायता दीर्थीकृता बृक्षा येषु ते धरणिधरा: समुद्रे पतन्ति । कीदृशाः । ऊर्ध्वस्थिताकंदरोत्थितपवनरयादुच्छलिता निर्झरा थेषु ते । पर्वता अधो गच्छन्ति निर्झरा ऊर्ध्वमित्यर्थ । एवं सति प्लवगानां कलकलः पर्वतक्षेपकालीनः कोलाहलो वर्धते । तथा सति वलमानो वक्रीभूतो वडवानियत्र तादृक्स लिलनिधिर्वलति । जलोच्छलनादिशि दिशि गच्छतीत्यर्थः ॥३६।।
विमला-पर्वत समुद्र में गिर रहे थे। उन पर वृक्ष वानरों के वेग से जन्य पवन के द्वारा दीर्घ कर दिये गये थे, पवनवेग से उनके निर्झर उछलकर ऊपर की ओर जा रहे थे । ( यह देखक र ) वानरों का कलकलनाद (हर्ष से ) बढ़ रहा था। वडवानल वक्र हो रहा था तथा समुद्र जल उछलने से प्रत्येक दिशा में जा रहा था ।।३६॥ गिरिनदीमत्स्यानाहदूराद्धणिअत्ता मोडिनमलिमहरिअन्दणम इज्जन्ता । उअहि रहसुविखत्ता भासाएन्ति विरस महाण इमच्छा ॥३७॥ [ दूराविद्धनिवृत्ता मोटितमृदितहरिचन्दनमुद्यमानाः ।
उदधि रभसोत्क्षिप्ता आस्वादयन्ति विरसं महानदीमत्स्याः ॥] पर्वतेन सहागतानां महानदीनां मत्स्या उदधिजलं यतो विरसं लवणाकरत्वात्, अत आ ईषत्स्वादयन्ति । कीदृशाः । वेगेनाविद्धाः प्रेरिताः पर्षतपतनेन समुद्रगर्भ गमिता अथापरिचितं जलमिति निवृत्तास्तटमागताः। अथ तत्र प्रथमं जलसंघट्टान्मोटितेन ततस्तरङ्गाभिहत्या मृदितेन पर्वतीयहरिचन्दनेन रक्तचन्दनेन मुद्यमानाः प्राक्परिचितचन्दनरससंपर्केण स्वीयजलबुद्धया जातहर्षा अत एव रभसेनोत्कण्ठया उत्क्षिप्ता उत्प्लुत्योत्प्लुत्य परितो गताः । तथा च तत्र पुनश्चन्दनादिरसानुपलम्भाज्जलान्तराशङ्कया निर्णेतुं वैरस्येन रसनाग्रेणव जलमास्वादयन्तीत्यर्थः ।।३।।
विमला--(पर्वत के साथ समुद्र में आयी हुई ) बड़ी-बड़ी नदियों की मछलिग वेग से प्रेरित समुद्र के भीतर चली गयीं, किन्तु ( उस जल के अपरिचित होने के कारण ) पुन: किनारे आ गयीं। वे वहाँ चूर-चूर हुये पर्वतीय रक्तचन्दन का सम्पर्क पाकर ( समुद्र के जल को अपना ही जल समझ कर ) प्रसन्न हुई और उत्कण्ठावश चारों ओर उछलने लगीं, किन्तु बाद में उन्हें अनुभव हुआ कि यह समुद्र का जल ( विरस नमकीन है, अतः उन्होंने ( रसना के अग्रभाग से ) उसका थोड़ा-थोड़ा पान किया ।।३७।।
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