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सेतुबन्धम्
[ अष्टम
यन्निव न भेतव्यमित्याश्वासयन्निव । पराभवं प्राप्तस्य वल्लभस्य प्रतिभया पत्नीनां भयमपगच्छतीति भावः ॥ ६१ ॥
विमला-वानरों की भुजाओं से प्रेरित पर्वत समुद्र में गिर रहे थे। उन पर बसने वाले किन्नर समुद्र में गिरने के भय से व्याकुल थे। समुद्र के रत्न' उछल कर इधर-उधर बिखरे हुए थे। समुद्र क्षुभित हो उन्नत किन्तु अदीन' शब्द कर रहा था, मानों उसके विषय में अनिष्ट की आशंका से व्याकुल नदियों के तीव्र भय को दूर करता हुआ वह उन्हें आश्वासन दे रहा था । ६१ ।। अथ मणिप्रभानामुद्गममाह
भरइ व दूराद्धो धुवइ व पडन्तधरणिहरकद्दमिमो। रुम्भइ व पडिणि अत्तो भिण्णो घडइ व मडिप्पहाहि समुद्दो॥६२॥ [भ्रियत इव दूराविद्धो धाव्यत इव पतद्धरणिधरकर्दमितः ।
रुध्यत इव प्रतिनिवृत्तो भिन्नो घटत इव मणिप्रभाभिः समुद्रः ॥]
दूरमाविद्धः पर्वतपतनेनोच्छलितः समुद्रः स्वस्य पर्वतानां वा मणिप्रभाभिभ्रियत इव तुच्छोऽपि पूर्यत इव, तद्वयाप्तत्वात् । पतद्भिर्धरणिधरैः कर्दमितो गौरिकादिसंबन्धात् धाव्यते प्रक्षाल्यत इव, स्वव्याप्त्योज्ज्वलीक्रियमाणत्वात् । उच्छलनेन कियरं गत्वा प्रतिनिवृत्तः सन् रुध्यत इव निजप्रसरेण विष्टभ्यमानत्वात् । भिन्नः । पर्घतपतनाद्विधाभूतः सन् घटत इव एकीभवतीव, संधीयमानान्तराल त्वात् । मणिप्रभाभिरिति सर्वत्र योजनीयम् । अत्रोत्प्रेक्षाचतुष्टयमपि मणिप्रभाणां बाहुल्यमौज्ज्वल्यं गाढत्वं यथासंख्यमाद्यत्रये तृतीयपरिहारेण जलाकार त्वं च सर्वत्र निमित्तमिति ध्येयम् ।। ६२ ।।
विमला-ययपि समुद्र का जल पर्वतों के अभिघात से उछल कर दूर तक चला गया, तथापि मणियों की प्रभा से वह ( समुद्र ) जल-पूर्ण-सा ही दिखाई देता था। गिरते हुये पर्वतों से वह पङ्किल होकर भी मणियों की प्रभा से धुला-सा प्रतीत होता था। कुछ दूर जाकर लौटता हुआ भी वह मणियों की प्रभा से अवरुद्ध ही ज्ञात होता था। पर्वत के गिरने से दो भागों में विभक्त होने पर भी मणियों की प्रभा से अभिन्न ही विदित होता था ।।६२।। जलवनगजयोरसंगममाह
करिम अराण खुहिअसाअरविसासिआणं सेउवहम्मि पडिअगिरिणिवहविसासिआणम् । समअं वणगआण णिवहा धरोसिमाणं समुहं आवडन्ति मगन्धरोसिआणम् ।।६३॥
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