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आश्वासः]
__ रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्
[३२५
[ आरभ्यमाणे सकलस्त्रिभागविषमो दरोत्थिते नलपथे ।
भवति द्विधा च समाप्ते स एवान्यः पुनः पुनरपि समुद्रः ।। स एव समुद्रः पुनः पुनरप्यन्य एव समुद्रो भवतीत्यध्याहारः । तदेवाहआरभ्यमाणे नलपथे सकल एव । अखण्डित एवेत्यर्थः । ईषदुत्थिते सति सेतो त्रिभागेन विषमोऽवशिष्टभागत्रयेण विसदशः प्रथमभागस्य सेतुच्छन्नत्वात् । यद्वा'त्रिधा च विषमः' किंचिद्वत्ते नलपथे त्रिधा त्रिप्रकारकः । त्रिखण्ड इत्यर्थः । खण्डद्वयं पार्श्वयोः, एकः पुरतः, अत एव विषमः समाप्ते सति द्विधा पार्श्वयोः खण्डद्वयरूपः । तथा च सेतोर्महत्त्वमुक्तम् ॥२॥
विमला-वही समुद्र पुनः-पुनः दूसरा ही समुद्र हो जाता था, क्योंकि जब सेतुपथ का आरम्भ किया गया उस समय वह अखण्डित ही था, सेतु का कुछ भाग (चौथाई) बन चुकने पर ( समुद्र का प्रथम भाग सेतु द्वारा आच्छन्न होने से) समुद्र तीन भागों (दो पार्श्व भाग तथा एक सामने का भाग ) से विषम (तीन खण्ड वाला) दिखाई पड़ा और सेतु समाप्त होने पर दोनों पावों के दो खण्डों से खण्डद्वयरूप दिखाई दे रहा था ।।२।। अथ सेतोः सुवेलावष्टब्धत्वमाहमल उच्छङ्गपउत्तो चलन्तवाणरभरोणो सेउवहो । गरुओ तिऊडगिरिणा पल्हत्थन्तो दुमो दुमेण व धरिओ ॥३॥ [ मलयोत्सङ्गप्रवृत्तश्चलद्वानरभरावनतः सेतुपथः ।
गुरुकस्त्रिकूटगिरिणा पर्यस्यमानो द्रुमो द्रुमेणेव धृतः॥] मलयोत्सङ्गात्प्रवृत्तः उपक्रान्तः, अत एव गुरुको महान्सेतुपथः पर्यस्यमानः समुद्रवीचिभिरितस्ततः प्रेर्यमाण स्त्रिकूटगिरिणा सुवेलेन धृतोऽवलम्बितः । न केवलं वीचिभिराकुलितः, किं तु चलतां वानराणां भरेणावनतोऽपि । तथा च मलयावष्टब्धोऽपि सुवेलावष्टम्भेन स्थिरोऽभूदिति भावः । क इव । द्रुम इव । यथा पर्यस्यमानः पतिष्णुई मो द्रुमेण पार्श्ववतिना ध्रियते । मलयादारभ्य सुवेलपर्यन्तं सेतुरभूदिति महावाक्यार्थः । 'पर्यस्तं पतिते हते' इति विश्वः ।।८३॥
विमला-मलय के उत्सङ्ग से उस महान सेतुपथ का प्रारम्भ हुआ था। (अतएव आदिम भाग में मलयगिरि उसे रोके हुए था) किन्तु ( सेतु की लम्बाई बहुत अधिक होने से ) वह समुद्र की लहरों से ) पर्यस्त एवं चलते हुए वानरों के भार से अवनत हो जाता था, उस समय सुबेल ( त्रिकूटगिरि ) के द्वारा रोके जाने से वह स्थिर रहा जैसे एक गिरने वाले वृक्ष को दूसरा (पार्श्ववर्ती ) वृक्ष गिरने से बचा लेता है ।।८३॥
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