________________
३४२ ]
सेतुबन्धम्
[ नवम
क्रमेणाप्राप्तानि हस्तेनाप्यस्पृष्टानि तुङ्गानि शिखराणि यस्येत्यनवच्छिन्नमस्तकमित्यर्थः । 'मूलुच्छङ्गम्' इति पाठे 'मूलोत्सङ्गम्' इत्यर्थ: ।। ७ ।।
विमला - इसका मूलभाग पाताल से भी नीचे चला गया है, जिसे रसातल को अपने संचार से विमर्दित करने वाला शेषनाग ( स्पर्श तो दूर रहा ) देख भी नहीं सका । यह इतना ऊँचा है कि त्रिभुवन को आक्रान्त करने के लिये परिवर्धित भगवान् त्रिविक्रम भी इसके उन्नत शिखरों का स्पर्श ( अपने हाथ से ) नहीं कर सके ॥ ७ ॥ पुनर्दाढयं मे बाह
विच्छूढो प्रहिसलिलं
कडअभमन्तभुअ इन्द विष्णा वेढम् ।
।
पासट्ठिएण रहणा करेहि हरिणा का मन्दरं उवऊढम् ।। ८ ।। [ विक्षिप्तोदधिसलिलं कटकभ्रमद्भुजगेन्द्रदत्तावेष्टम् । पार्श्वस्थितेन रविणा करेंहरिणेव मन्दरमुपगूढम् ॥ ]
एवं विक्षिप्तं तटेन प्रतिहत्य परावर्तितमुदधिसलिलं येन तम् । एतेन तीरवृत्तित्वेऽपि समुद्रेणाप्यनुन्मूलनीयम् । एवं कटके भ्रमता भुजगेन्द्रेण वासुकिना दत्तमाष्टमालिङ्गनं यस्मै । तथा च तस्यापि कटक एवं संचारो न तु शिरः पर्यन्तप्राप्तिरिति भावः । एवं पार्श्व स्थितेन न तुपरि गन्तुं शक्तेन रविणा करैस्तेजोभिरुपगूढमालिङ्गितम् । अन्यत्रापि पार्श्वस्थितेन करेणैवालिङ्गनं क्रियत इति ध्वनिः । कमिव । पार्श्वस्थितेन हरिणा चतुभिरपि करैरुपगूढं समुद्रमथनसमये समाश्लिष्टं मन्दरमिव । तमपि किंभूतम् । विक्षिप्तं स्वभ्रमणेन परितश्चालितमुदधिसलिलं येन । एवं कटने भ्रमता नेत्रीभूतेन शेषेण दत्तमावेष्टं वलयीभावो यत्रेत्युपमा ||८||
विमला - ( यद्यपि यह समुद्र के तीर पर ही स्थित है तथापि समुद्र इसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता है ) समुद्र -सलिल इससे टकरा कर पुन: वापस लौट जाता है | ( शिरोभाग तक पहुँच न होने से ) वासुकि इसके [ कटक पार्श्वभाग पर घूमकर इसे आलिङ्गित करता है । ( ऊपर तक पहुँचने में अशक्त होने से ) पार्श्व - भाग में स्थित सूर्य करों ( १- किरण, २- हाथ ) से इसे मन्दराचल को हरि के समान आलिङ्गित करता है ।। ८ ।।
1
पुनर्मूलमौलिमहत्त्वमाह -
सेससिरर अणघट्टिमणिमू लुज्जो अहअर साग्रलतिमिरम् । समुद्धतिहरसं कडपण ठरविमण्डलन्धारिणम् ॥ ६॥ [ शेषशिरोरत्नघट्टितमणिभूलोद्योततरसातल तिमिरम् । विषमोर्ध्वशिखरसंकट प्रनष्ट रविमण्डलान्धकारितगगनम् ॥ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org