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सेतुबन्धम्
[ षष्ठ
में लाए गये और दीर्घं से हुए तब नदियों के स्रोत भी पवन के वेग से चिरकाल तक दीर्घ बने रहे । इस प्रकार नदीस्रोत गिरियों के मार्ग से प्रस्थित हुए अर्थात् जो दशा पर्वतों की हुई वही उनकी भी ॥ ८१ ॥
अथ गिरीणामुद्वहनमाह
उम्महसारङ्गअणं प्रष्फुन्दइ मलिश्रमेहसारं गअणम् । विवरम्भन्तरविअं गिरिजालं सिहरपरिभमन्तर विद्मम् ॥ ८२ ॥ [ उन्मुखसारङ्गगणमाक्रामति मृदितमेघसारं गगनम् । विवराभ्यन्तरविहगं गिरिजालं शिखरपरिभ्रमद्रवियम् ॥ ]
गिरिजालं कर्तृ गगनमाक्रामति । कीदृग्गिरिजालं गगनं वा । कुत्र गम्यते कि - स्यादिति कृत्वा उन्मुख : सारङ्गाणां कुरङ्गाणां गणो यत्र तत् । यद्वा उन्मुख ऊर्ध्वं - `मुखः सारङ्गाणां चातकानां गणो यस्मात् । पर्वतेषु मेघभ्रमादित्यर्थः । पुनः कीदृक् । - मृदितं मेघसारं गगनवर्ति मेघजलं येन । पक्षे यत्र गिरिशिखरोल्लेखनात्तत्रत्य मेघजलक्षरणमित्यर्थः । एवं विवराभ्यन्तरे विहगा यत्र । भयेन कंदरालीनपक्षिक`त्वात् । एवं शिखरेषु परिभ्रमन्तो रविया यत्र । एतत्प्रतिरोधेन वर्मालाभादित्युभयसाधारणम् । कंदरा शिखरद्वारैव | 'सारङ्गश्चातके भृङ्गे कुरङ्गेऽपि मतङ्गजे ॥ ८२ ॥
विमला - पर्वतों ने ( इतने वेग से ) गगन को आच्छादित कर लिया कि पक्षीगण उनके भीतर कन्दराओं में ही रह गए, उन्हें उड़ भागने का अवसर ही नहीं मिल सका । आकाश में पहुँचकर पर्वतों ने मेघजल को विनष्ट कर दिया । (पर्वतों को मेघ समझ कर ) चातकों ने ( जलाशा से ) मुंह ऊपर कर लिया । पर्वत आकाश में इतने ऊँचे पहुँच गये कि उनके शिखरों पर सूर्य के अश्व परिभ्रमण करने लगे || ८२॥
अथ पर्वतोद्वहनप्रकारमाह -
अंसविश्रमहिहरा उम्भिदाहिण करावलम्बिसिहरा । उत्ताणवामकरप्रलधरिअणिअम्बपसरा णिअत्तन्ति कई ॥ ८३ ॥ [ अंसस्थापितमहीधरा उच्छ्रितदक्षिणकरावलम्बितशिखराः । उत्तान वामकरतलधृतनितम्ब प्रसरा निवर्तन्ते कपयः ॥ ]
असे स्थापितो महीधरो यैः । उच्छ्रितेन दक्षिणकरेणावलम्बितं शिखरं यैः । उता वामरतन घृतो नितम्बप्रसरो यैस्तथाभूताः कपयो निवर्तन्ते । परावर्तन्त इत्यर्थः ॥८३॥
विमला--- सकल कपि कन्धों पर पर्वतों को रक्खे हुए, दाहिना हाथ उठा साधे हुए, बायें करतल को उत्तान कर उस पर किए हुए लौट चले || ३ ||
कर उससे उनके शिखरों को उनके नितम्ब भाग को धारण
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