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सेतुबन्धम्
[ सप्तम
काननं सद्भ्रमदिशि दिशि गच्छच्च तद्भ्रमणशीलमध्यं चेति कर्मधारयः । तथा चावर्तशीलमध्यजलस्य कानन संबन्धाद्विशृङ्खलगतिकत्वेन भ्रमणमिति भावः । यद्वा ऊर्ध्वदेशावच्छेदेनोच्छलनं विवक्षितम् । तत्र गिरिवर्तमानकाननस्य कल्लोला भिघातादाकर्षणेन तन्मिश्रितगरिकादिसंबन्धात्कलुषच्छायमित्यर्थः ॥४॥
विमला-पर्वतों के पड़ने पर समुद्र का जल उछला और (पृथिवी को आप्लावित कर) पुनः समुद्र के भीतर आ गया। उस समय (कल्लोल के अभिघात से ) आकृष्ट कानन भ्रमण करने लगे, क्योंकि जल का भीतरो भाग आवर्त का रूप धारण कर चुका था एवम् ( आप्लावित मही के रज एबं तृण आदि को बहा लाने के कारण ) समुद्र का जल मटमैले रंग का हो गया था ।।४।। अथ समुद्रोपरि नभोभागमाह- ..
सलिलत्थमिअमहिहरो पुणो वि अद्दिमिलिअगिरिसंघाओ। तह घडिप्रपवनो विम दोसइ बहसाअरन्तराल (सो।। ५ ।। [ सलिलास्तमितमहीधरः पुनरप्यदृष्टमिलितगिरिसंघातः ।
तथा घटितपर्वत इव दृश्यते नभसागरान्तरालोद्देशः ॥] सलिलरर्थात्प्रथमपाततपर्वताभिघातादूर्ध्वमुच्छलितैरस्तमिता अदृश्यतां नीताः समुद्रे पतन्ते महीधरा यत्र तादृशो नभःसागरयोरन्तरालप्रदेशस्तथा पूर्वप्रकारेण घटिता योजिता: पर्वता यत्र तथाभूत इव दृश्यते । अत्र हेतुमाह-पुनरप्यदृष्टमनाकलितं यथा स्यादेवं मिलितः स्वसंबद्धो वा गिरिसंघातो यत्र तथा। तथा च प्रथममुच्छलितजलेन पतत्पर्वतानां तिरोधानेऽप्यन्यैर्बहुभिरापतितस्तैस्तज्जलानामेव तिरोधानादधःपतनाद्वा पूर्वपर्वतघटित एव लक्षित इत्युत्प्रेक्षा ॥५॥
विमला-नभ और सागर के अन्तराल प्रदेश में (प्रथमपतित पर्वतों के अभिघात से उछले ) जल से महीधर अदृश्य हो गये, फिर भी अदृष्ट रूप में अन्य बहुत से पर्वतों के आ पड़ने से और उनके परस्पर संबद्ध हो जाने से जल का ही तिरोधान अथवा पतन हो गया और वह नभ तथा अन्तराल का प्रदेश पूर्वपर्वतों से ही योजित-सा दिखाई पड़ा ॥५॥ कपीनामारम्भोत्कर्षमाह
जणि पडिवक्खभ तुलिआ सेला धुओ कईहिं समुद्दो। ण हु णवर हिअअसारा आरम्भा वि गरुआ महालक्खाणम् ॥ ६॥ [ जनितं प्रतिपक्षभयं तुलिताः शैला धुतः कपिभिः समुद्रः ।
न खलु केवलं हृदयसारा आरम्भा अपि गुरवो महालक्ष्याणाम् ॥]
कपिभिः शैलास्तुलिता उत्पाट्यानीताः । अथ तत्क्षेपेण समुद्रो धुत आन्दोलितः । तत एव प्रतिपक्षाणां रावणादीनां भयं जनितमित्युत्तरोत्तरं प्रति पूर्वपूर्वस्य
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