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सेतुबन्धम्
[षष्ठ
विमला-वानर पर्वतों को आकाश में लेकर उड़ गये, मानों वे वानर (पंखहीन) उन पर्वतों के पंख हो गये जो अत्यन्त चञ्चल एवम् उड़ने में फुर्तीले ये और जिनके सहारे से सभी पर्वत एक साथ ही उड़कर, विस्तृत एवं भारी होने पर भी आकाश में पहुँच गये ॥७८॥ अथ पर्वतखातपूरणमाह--
पवनक्कन्तविमुक्कं विसमुद्धप्फडिप्रपत्थिअणिअत्तन्तम् । घडिसं घडन्तण इमुहसंदाणि असेल णिग्गमं महिवेढम् ॥७९॥ [प्लवगाक्रान्तविमुक्तं विषमोर्वस्फुटितप्रस्थितनिवर्तमानम् ।
घटितं घटमाननदीमुखसंदानितशैलनिर्गमं महीवेष्टम् ॥]
महीवेष्टं घटितं प्रागिव मिलित्वा समीभूतम् । कीदृक् । प्लबगानामाक्रान्तेनाक्रमणेन । भावे क्तः । विमुक्तं स्फुटितम् । पर्वतोत्पाटनेन सखातीभूतमिति यावत् । एवं घटमानेन मिलता नदीमुखेन नदीप्रवाहेण संदानितः संयोजितः शैलनिर्गमः शैलमूलखातो यत्र तत्तथा । एवं विषमं नतोन्नतं पूर्वपातानियमेनोर्ध्वप्रस्थितं सत्स्फुटितं त्रुटितं पश्वानिवृत्तं तत्खाते पतितम् । अयमर्थः-पर्वतोत्पाटनेन कियत्यो मृत्तिकाः खातपार्श्व एव तिर्यगूर्ध्वमुत्थिताः अथोत्तोलितगिरिनिर्झरपातपूरिते तत्खाते जलसंबन्धात्त्रुटित्वा पुनः पतितास्तेन तद्विवरमुद्रणम् । यद्वा उत्तोलितपर्वतमूललग्नव मृत्तिका विषमा ऊर्ध्वप्रस्थिता अथ निर्झरेण सह त्रुटित्वा निवृत्त्य तत्खात एव प्रविहटेति प्रकृतभूमितुल्यतेति संप्रदायः । वस्तुतस्तु प्लवगेनाक्रान्तमवपतनादथोत्पतनेन विमुक्तं त्यक्तमथ विषमं सदूर्वेऽन्तरिक्षे पर्वतमूले लग्नमुत्थितं पुन: स्फुटितं त्रुटितमत एव प्रस्थितं शैलेन' सहेत्यर्थात् पश्चानि वर्तमानं त्रुटनानन्तरमध एवागतं महीवेष्टं घटितं प्रागिव संबद्धम् । तत्र हेतुमाह-घटमानेत्यादि । तथा च प्लवगेन केचिद गिरय उत्पतनकाल एवोत्थापितास्तेन तन्मूलभूमिरपि कियद दूरमुत्थाय निजखात एव पतितेति सति भूमिपर्वतयोरन्तरा विच्छेदे पुनः पर्वतमूलेनोवत: पतता निर्झरजलेन पर्वतसमानाकारेण भूमिपर्वतयोरन्तरादेश एकीकृत इति निर्झरमहत्त्वेन गिरिमहत्त्वमुक्तमिति मदुन्नीतः पन्थाः ।।७६।।।
विमला--वानरों ने जिस समय पर्वतों को उखाड़ा उस समय उनके मूलस्थान पर बड़े-बड़े गर्त बन गये । कुछ मिट्टी गर्त के आस-पास रह गयी और कुछ पर्वतों के मूल भाग में लगी हुई ऊपर आकाश में ही चली गयी। ऊपर आकाश में पहुँचे हुये पर्वतों से निर्झर जब भूमि की ओर गिरे उस समय उक्त दोनों प्रकार की मिट्टियाँ निर्झर जल के साथ घुल कर उन्हीं गर्मों में जा पड़ी और इस प्रकार से वे गर्त पुनः पूरे हो गये और महीतल पूर्ववत् सम हो गया ।।७।।
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