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२४२]
सेतुबन्धम्
[षष्ठ
[ आलोकिता न दृष्टाः सत्यापिता न गृहीताः समवपतितैः ।
उन्मूलिता अपि यस्तैर्नोदधि नीताः कपिभिर्महीधराः ॥] महीधराः प्रथमं दूरादपि यैरालोकित्तास्तैः पुनर्न दृष्टाः । तदानीमेवान्यैरुत्पाटितत्वादिति भावः । एवं यैः सत्यापिता ग्रहीतुं स्थिरीकृतास्तैर्न गहीताः। किंत्वन्यैरेवेत्यर्थः । वस्तुतस्तु दूरादालोकिता: सत्यापिता अपि पूर्ववेगवशादुल्लङ्गय गतैः पुनर्न दृष्टा न च गृहीता इति भावः। एवं सममेकदैवावपतितैर्येरुन्मूलिता उत्पाटिता अपि तैरुदधिं न नीताः । किं तु क्षिप्रकारिभिरन्यैरेवेत्यर्थः । एतेन त्वरातिशयः सूचितः ।। ६४।।
विमला-वानर पर्वतों के लिए इतनी जल्दी मचाए हुए थे कि जिन्होंने पर्बतों को देखा उन्हें फिर वे पर्वत दिखाई नहीं पड़े, क्योंकि इसी बीच में दूसरों ने उन्हें उखाड़ लिया। इसी प्रकार जिन्होंने पर्वतों को ग्रहण करने के लिए ठीक-ठाक किया वे उन पर्वतों को ग्रहण नहीं कर पाए, क्योंकि उतने में ही दूसरों ने उन्हें ग्रहण कर लिया और जिन्होंने पर्वतों को उखाड़ा उन्हें उनको समुद्र तक ले जाने का अवसर नहीं मिला, क्योंकि अभी उन्होंने उखाड़ा ही था कि दूसरे उन्हें लेकर चम्पत हो गए ।।१४।। अथ प्लवगानां गतिमार्गमाह
भग्गदुमभङ्गभरिओ उक्खित्तविसट्टपडिअमहिहरविसमो। पवाण उअहिलग्गो लक्खिज्जइ बिइप्रसंकमो ब्व गइवहो ॥१५॥ [ भग्नद्रुमभङ्गभृत उत्क्षिप्तविशीर्णपतितमहीधरविषमः ।
प्लवगानामुदधिलग्नो लक्ष्यते द्वितीयसंक्रम इव गतिपथः ॥] समुद्रलग्नः प्लवगानां गतिपयः संचारमार्गोऽधोवर्ती पथाकारो भूप्रदेशो द्वितीय संक्रम इव द्वितीयसेतुरिव लक्ष्यते । कीदक् । संक्षोभाद्भग्नद्रुमाणां भङ्गः खण्डेभृतो व्याप्ताः । एवं प्रथममुत्क्षिप्ताः सन्तो विशीर्णा उत्क्षेपणाभिघातेन खण्डशो भूता अथ पतिताः । भूमावित्यर्थात् । एवंभूता ये महीधरास्तविषमो निम्नोत्रतः । संक्रमोऽप्येवमेव द्रुमशैलभङ्गपूर्णो भवतीत्यर्थः । पतत्पर्वतवृक्षखण्डपूर्णत्वात्समुद्रपर्यन्ताकाशदेश एव गतिपथ इति केचित् ।।९।।
विमला-इस प्रकार आकाश-मार्ग से जाते हुए कपियों का संचरणमार्ग समुद्र तक टूटे हुए वृक्षों के खण्डों से व्याप्त एवं ऊपर फेंके जाने से खण्ड-खण्ड हुए, अतएव पतित पर्वतों से ऊबड़-खाबड़ होकर द्वितीय सेतु-सा दिखाई दे रहा था ॥६५॥
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