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आश्वासः ]
रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्
[१७६ :
जलचरैः संदष्टौ पक्षपुटयोः प्राग्भारो येषां ते । दाहवारणाय मकरादयः पक्षपुटेषु निलीना इत्यर्थः । एतावता पर्वतानां महत्त्वम् । इदमपि देहगौरवहेतुत्वेनोत्पतनदुःखे बीजम् ॥६४॥
विमला-अग्नि से तटप्रदेशों के पूर्ण हो जाने से ( दाह-दुःख को न सह सकने के कारण ) पर्वत बड़ी कठिनाई से आकाश को उड़ सके, क्योंकि एक तो वे स्वभावत: शरीर से गुरुतर थे दूसरे अग्नि से बचने के लिये तमाम मकर आदि जलचर उनके पंखों में आकर निलीन हो गये थे, तीसरे चिरकाल से एक ही जगह पड़े रहने से ( सवेग संचरण का अभ्यास न होने के कारण ) उनकी गति मन्द हो गयी थी ॥६४॥ समुद्रस्योपमर्दप्रकर्षमाह
जलइ जलन्तजलपरं भमइ भमन्तमणिविन्दुमलआजालम् । रसइ रसन्तावतं भिज्जइ भिज्जन्तपव्यों उअहिजलम् ॥६५॥ [ ज्वलति ज्वलज्जलचरं भ्रमति भ्रमन्मणिविद्रुमलताजालम् । रसति रसदावर्त भिद्यते भिद्यमानपर्वतमुदधिजलम् ॥]
उदधिजलं ज्वलन्तो जलचरा मकरादयो यत्र तथाभूतं सज्ज्वलति । एवं भ्रमन्मणि विद्रुमलतयोलिं पत्र तथा सद्भ्रमति । रसन्नावों यत्र तथा सदसति शब्दायते । भिद्यमानाः पर्वता यत्र तथा सद्भिद्येत द्विधा भवति । उच्छलितपर्वतखण्डेनाभिघातात् । अत्र सर्वत्र जलजलचरदायोर्जलमणिविद्रुमभ्रमणयोर्जलशब्दावर्तशब्दयोजलपर्वतभेदयोः कार्यकारणयोरेककालत्वं शतप्रत्ययेन बोध्यते । तेन च वह्निप्रकर्षाधीनक्वाथप्रकर्षो गम्यते ॥६५॥
विमला-उदधि का सारा जल जल रहा था, चक्कर काट रहा था, शब्द कर रहा था एवं छिन्न-भिन्न हो रहा था और उसके साथ-साथ सारे जलचर जल रहे थे, मणियों एवं विद्रुमों का समूह चक्कर काट रहा था, आवर्त शब्द कर रहा था एवम् पर्वत छिन्न-भिन्न हो रहे थे ॥६५।। पुनस्तदेवाह
आवत्तविवरभनिरो मलमणिशिलाअलक्खलि प्रसंचारो। . घोलिरतरङ्गविलमो ह दोसइ सारो तहे हुअवहो ॥६६।। [ आवर्तविवरभ्रमणशीलो मलयमणिशिलातलस्खलितसंचारः ।
घूर्णमानतर विषमो यथा दृश्यते सागरस्तथैव हतकहः ।।]
आवर्त विवरेगु ब्रमणशील आवर्तगत्यानुसारित्वात् । एवं मलामणि गलातलेषु स्खलित चारः । भूमिसम्मानुसारित्वात् । एवं घूर्णमानतरङ्ग दिनस्तिर्थ गूर्ध्वगतिः तदनुसारित्वात् । समुदो हुत बहोऽपीति । यथा सागरस्तथा हुरहोऽपि दृश्यत इति सागरतुल्का तातो हुावहस्य निखिलजलात्मकत्वमुक्तम् ।।६६।।
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