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२०० ] सेतुबन्धम्
[ षष्ठ पक्षे त्रिभुवनस्य सारेण बलेन धनेन वा गौरवयुक्ता । त्रैलोक्यस्यैव भारो धनानि च भूमावेव तिष्ठन्तीत्यर्थः। महाराष्ट्रभाषायां बहुवचनेऽप्येकवचनप्रयोगाद्भुअंग इत्युक्तम् ॥१८-१६।।
विमला-सुग्रीव के सामने ही रावण पर कुपित श्रीराम ने जगत् से दुर्जेय वाली के समान' जगत् से दुस्तरणीय समुद्र को जब बाण से नियमित एवं प्रशान्त कर दिया तब (सेतु बांधने के लिये) राम की (रावण वधरूप) त्रिभुवन के प्रयोजन से आदरणीय आज्ञा को वानरपति सुग्रीव ने प्रकाशित की और वानरों ने उसे उसी प्रकार सिर पर धारण किया जैसे शेषफण के द्वारा उतारी गयी त्रिभुवन के भार एवं धन से गौरवपूर्ण भूमि को भुजंग सिर पर धारण करते हैं ॥१८-१६॥ कपीनां प्रस्थानमाह
तो हरिसपढमतुलिए चलिआ फुट्ठन्तपम्हविसमूससिए । वे उक्खप्रसीमन्ते पवआ धुणिऊण केसरसङ्घग्घाए ॥२०॥ [ ततो हर्षप्रथमतुलितांश्चलिता स्फुटत्पक्ष्मविमोच्छ्वसितान् ।
वेगोत्खातसीमन्तान्प्लवगा धूत्वा केसरसटोद्धातान् ॥] ततो रामाज्ञानन्तरं प्लवगाश्चलिताः । पर्वतानयनायेत्यर्थात् । किं कृत्वा । समुद्रेण सेतुः स्वीकृत इति हर्षेण प्रथमं तुलितानुत्थापितान्केसरसटानामुद्धातान्समूहान्धूत्वा कम्पयित्वा। आनन्देन मस्तकोन्नतौ सटामुन्नतिः, अथ जातिस्वाभाव्यात्कम्पनमित्यर्थः । कीदृशान् । स्फुटद्भिमिथः पृथग्भवद्भिः पक्ष्म भिविषमं यथा स्यादेवमुच्छ वसितानुत्फुल्लान् । कम्पने सति परस्परविभागादित्यर्थः । एवं वेगेनोत्खातः प्रकटीकृतः सीमन्तो येषु तान् । धावनेन सटानां पार्श्वद्वये पातान्मध्ये रेखाभिव्यक्तिरिति भावः । केशाग्रं पक्ष्म ।।२०॥
विमला-श्रीराम की आज्ञा के अनन्त र आनन्द से ( सिर उठाने पर ) केसरसटा ( गरदन के बाल ) उठाकर सभी वानर (पर्वतों को ले आने के लिये ) चल पड़े। उस समय उनके गरदन के बाल एक-दूसरे से पृथक् होकर उत्फुल्ल हो रहे थे और वेग से ( दौड़ने पर ) वे केश गरदन के दोनों तरफ झुक गये थे, जिससे बीच में रेखा ( माँग ) प्रकट हो गयी थी ॥२०॥ अथ कपिचलनात्समुद्रक्षोभमाह
पवअक्खोहिअमहिलधअमल अपडन्तसिहर मुक्ककलप्रलो। उद्धाइयो अणागअघडन्तधरणिहरसंकमो व्व समुद्दो ॥२१॥ [प्लवगक्षोभितमहीतलधूतमलयपतच्छिखरमुक्तकलकलः । उद्धावितोऽनागतघटमानधरणिधरसंक्रम इव समुद्रः ।]
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