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सेतुबन्धम्
[ षष्ठ
विमला — वानरों ने उठाने के लिये पर्वतों को हिलाया - बुलाया किन्तु बे हिले-डुले नहीं तो ( कार्य के लिये अनुपयोगी समझकर तथा भार भी हल्का करने के लिये ) उन्होंने भुजाओं के प्रहार से शिखरभाग तथा नितम्बभाग की नीचीऊँची शिलाओं को खण्ड-खण्ड कर दिया ||७०||
गिरीणां महत्त्वमाह
उष्णामि मित्र गहं दूरं ओसारिश्रा विव दिसाहोआ । उम्मूलन्तेहि घरे पसारिअं मिव पवंगमेहि महिअलम् ॥७१॥ [ उन्नामितमिव नभो दूरमपसारिता इव दिगाभोगाः । उन्मूलयद्भिर्धरान्प्रसारितमिव प्लवंगमैर्महीतलम् | ]
धरान्पर्वतानुन्मूलयद्भिः प्लवंगमैर्नभ उन्नामितमिव ऊध्वं नीतमिव । पर्वतोनमनात् । एवं दिगाभोगा दिग्विस्तारा दूरं व्याप्यापसारिता इव बहिःकृता इव । पर्वतविस्ताराक्रान्तत्वात् । एवं महीतलं प्रसारितमिव सावकाशीकृतमिव । पर्वतमूलोत्थापनेन सप्रकाशत्वादिति गिरीणामप्रमध्य मूलभागोत्कर्षं उक्तः ।।७१।।
विमला -- पर्वतों को उखाड़ते हुये वानरों ने मानों आकाश को और ऊपर उठा दिया, दिशाओं के विस्तार को दूर तक हटा दिया एवं महीतल को प्रसारित कर दिया ||७१||
गिरिमूलखात गाम्भीर्यमाह -
बीस कइणिक्य धराहर ठाणगहिर विवरुत्तिष्णो । उप्पा आश्रवअम्बो से साहिष्णमणि पहा विच्छड्डो ॥ ७२ ॥ [ दृश्यते कपिनिवहोत्खातधराधरस्थान गभीरविवरोत्तीर्णः । शेषाहिफणमणिप्रभाविच्छदः ॥ ]
उत्पातातपाताम्रः
कपिनियनोत्खातानां धराधराणां स्थामान्यवस्थितिप्रदेशास्तान्येव गभीरविवराणि तैरुत्तीर्णः पातालादूर्ध्वमुद्गतः शेषरूपस्याहेः सर्पस्य फणमणीनां प्रभासमूह उत्पातातपवदाताम्रो दृश्यते । गिरिविवरेषु पातालतिमिरसंक्रमाद्धूम्रत्वेन मणिप्रभाणां प्रातरुत्पातरूपधूमधू म्रतरणितेजोभिः साम्यम् । शेषस्य नाना फणानां नानामणीनां नानाविवरवर्त्मना विनिर्गम इति । समूहवाचि विच्छदपदम् ॥७२॥
विमला - वानरों ने जहाँ-जहाँ से पर्वतों को उखाड़ा, उस उस स्थान पर ( पाताल तक ) गहरा विवर हो गया । उन विवरमार्गों से ऊपर निकलती हुई शेषनाग के मणियों की प्रभा ( पाताल - तिमिर से संक्रान्त होने से ) उत्पातकालीन आप के समान ईषत् ताम्रवर्ण दिखाई दे रही थी ||७२ ||
वानराणां बलवत्तामाह -
केलासदिट्ठसारं गरुअं पि भुआबलं णिसा अरवइणो । पवएहि पाडिएक्कं एक्ककरुषिवत्तमहिहरेहि लहुइअम् ||७३||
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