________________
११२]
सेतुबन्धम्
[ तृतीय
[उत भग्न ('अवभग्न'वा) राक्षसद्रुमां निहतदशाननमृगेन्द्रसुखसंचाराम् । रामानुरागमत्तो मृद्नामि लड्कां वनस्थलीमिव वनगजः ॥] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये
तृतीय आश्वासः परिसमाप्तः ॥
उत पक्षान्तरे। रामानुरागेण मत्तः साहंकारोऽहं लङ्कां मृदनामि । तत्रैव गत्वा मर्दयामीत्यर्थः। क इव । वनस्थलीं वनभूमि मत्तो वनगज इव । लङ्कां कीदृशीम् । भग्ना हतत्वात्पातिता अवभग्ना इति वा राक्षसा एव द्रुमा यत्र । एवं निहतो दशानन एव मृगेन्द्रस्तेन सुखसंचाराम् । वनभूमावपि गजेन्द्रप्रवेशादद्रुमभङ्गो मृगेन्द्रहननाच्च संचारसौख्यं भवतीत्यर्थः । अत्र वनगजेन मृगेन्द्रहनने जातिविरोधदोष इति न देश्यम् । कालवशेन कदाचित्तथाभावादिति केचित् । दशाननवधस्य रामकर्तृकत्वादन्य कर्तृको मृगेन्द्रवध इत्यपरे । वस्तुतस्तु मइन्द इत्यत्र मदी इति प्रकृतिः। तथा च मदवि शिष्टो मदी मत्तगजस्तदिन्द्र इत्यर्थः । तेन मत्तगजयोः सङ्ग्रामे एकेनापरस्य हननं संभवत्येवेति न जातिविरोधः, न वा मृगेन्द्रापेक्षया बन गजस्य न्यूनजाति वा स्वस्य रावणादपकर्षः प्रतीयत इति दृषणमिति तु वयम् ॥६३॥
सुग्रीवप्रौढिदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य तृतीयाभूदियं शिखा ॥
विमला-अथवा मत्त वनगज के समान रामानुराग से मत्त ( साहंकार) वनस्थली के समान लङ्का को ऐसा रौंदता हूँ कि राक्षसरूप वृक्षों के गिरने, दशानन रूप मृगेन्द्र के विनष्ट होने से उसमें सब सुख से चल-फिर सकेगे।
विमर्श-वनगज के द्वारा मृगेन्द्रहनन में जातिविरोध दोष है । इस दोष का परिहार इस प्रकार करना चाहिये-भी-कभी काल वश वैसा होता है। अथवा सुग्रीव अपने को वनगज और रावण को मृगेन्द्र क हक र रावण की अपेक्षा अपने को अपकृष्टतर प्रतीत करना चाहता है। अथवा 'मइन्द' की संस्कृतच्छाया 'महीन्द्र' कर दी जाय। मदवि शिष्टा: मदिन: गजाः तेषामिन्द्रः । दो मतगज के संग्राम में एक से दूसरे का हनन तो संभव ही है ॥६३।। इस प्रकार श्री प्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखवध महाकाव्य
__ में ततीय आश्वास की विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org