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आश्वासः ]
रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम्
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विमला — अथवा हमारी अभ्यर्थना पर भी समुद्र ( हमारे पारगमन को अप्रिय समझ कर ) निष्कारण गृहीत धैर्य ( प्रतिरोध का आग्रह ) को नहीं छोड़ेगा तो ( तत्काल ) समुद्ररूप बन्धन को तोड़ कर ( इसे शुष्क कर ) कपि+ सैन्य को स्थल मार्ग से उस पार गया हुआ आप देखेंगे ||४६ ||
अवन्ध्यकोपतां दर्शयति-
जत्थ महं पडिउत्थो वमिहिइ अण्णस्स कह तर्हि चित्र रोसो | दिठि पाडेह जहि विदिट्ठविसो तं पुणो ण पेच्छइ बिइग्रो ।। ५० । [ यत्र मम पर्युषितो वत्स्यत्यन्यस्य कथं तस्मिन्नेव रोषः । दृष्टि पातयति यत्र दृष्टिविषस्तं पुनर्न पश्यति द्वितीयः ॥
यत्र विषये मम रोषः परि सर्वतोभावेनोषितोऽवस्थितस्तत्रैवान्यस्य जनस्य रोषः कथं वत्स्यति । अपि तु न वत्स्यतीत्यर्थः । मयैव तस्य नाशनीयत्वादिति भावः। अर्थान्तरं न्यस्यति — यत्र जने दृष्टिविषो दृष्टावेव विषं यस्य तादृक्सप दृष्टि पातयति तं जनं पुनद्वितीयो दृष्टिविषो न पश्यति । प्रथमेनैव प्रथमदर्शनात्तस्य भस्मीकृतत्वादित्यर्थः । तथा च प्रतिकूलमाचरन्समुद्रो ममैव क्रोधान्नङ्क्षयनीति रामादिशेषापेक्षापि न स्यात् । तथा सति सुखेन पारमुत्तरिष्याम इति
भावः ।। ५० ।।
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विमला - जिस पर मेरा क्रोध हो गया उस पर दूसरे का क्रोध कैसे होगा ? ( क्योंकि मेरा ही क्रोध उसे विनष्ट कर देगा दूसरे को क्रोध करने की आवश्य-. कता ही नहीं रहेगी ) । जिस पर दृष्टिविष ( एक प्रकार का सर्प, जिसकी आँख में ही विष रहता है ) दृष्टि डाल देता है, उस मनुष्य को दूसरा दृष्टिविष नहीं देखता है ( क्योंकि पहिला ही अपनी दृष्टि से उसे भस्म कर देता है ॥५०॥
अथ विभीषणागमनेन प्रकृतमुपसंहरन्नाह
ताव अ सहसुप्पण्णा णवाअबालिद्धक सणमिहिश्राअम्बा | मउलपहाणु विद्धा श्राढत्ता दीसिउं णिसिश्ररच्छाया ॥ ५१ ॥ [तावच्च सहसोत्पन्ना नवातपाश्लिष्टकृष्णमेधिकाताम्म्रा ।
मुकुट प्रभानुविद्धा आरब्धा द्रष्टुं निशिचरच्छाया ॥]
तावदभ्यन्तरे सहसा अतर्कितमुत्पन्ना निशिचराणां विभीषणादीनां छाया नभःस्थितानामेव कान्तिविशेषस्तैर्द्रष्टुमारब्धा । यद्वा छाया समुद्रे प्रतिविम्बो भूमावातपाभावो वा किमेतदिति जिज्ञासावशादित्यर्थः । छाया कीदृशी । मुकुटस्य प्रभाभिरनुविद्धा संबद्धा । अत एव नवातपेन प्रातः कालीनरविकान्त्या आश्लिष्टा संबद्धाः
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