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१६० ] सेतुबन्धम्
[पञ्चम धनुष की कोटि पर विस्फुरित हो उठी एवं मौर्वी शब्द के समान गम्भीर बश उनसे उत्पन्न हो उठा ॥२६॥ अथाकणं धनुःकर्षणमाह
फ डजीआरवमुहल तज्जेइ व बाणमुहज लन्तग्गिसिहम् । जलणि हिवह पडिउद्ध आअण्णाअड्ढि विअम्भइ व धणम् ।।२७॥ [स्फुटजीवारवमुखरं तर्जयतीव बाणमुखज्वलदग्निशिखम् । जलनिधिवधप्रतिबुद्धमाकर्णाकृष्टं विजृम्भत इव धनुः ।।]
आ कर्णमाकृष्टं तद्धनुर्जल निधिवधाय प्रतिबुद्धं सप्रकाशं सद्विजृम्भत इव जृम्भां करोतीव । आकर्षणे सति ज्याया धनुषश्च व्यवहितविश्लेषान्मुखच्यादान मिव प्रतीयत इत्यर्थः । अन्योऽपि प्रतिबुद्धो जाग्रज्जृम्भां करोतीति ध्वनिः । एवं स्फुटज्यारवेण मुखरं सत्तर्जयतीव त्रासयतीव । अत्र हेतुमाह-बाणमुखे ज्वलन्ती अग्निशिखा यत्र । तदाग्नेयशरसंधानात् । अन्योऽपि तर्जनकाले विभीषिकावचनमाचरतीति ध्वनिः । प्रकृते तु समुद्र ! तिष्ठ क्व गमिष्यसीत्यादि तर्जनशब्दो ज्यारव एवेत्युभयत्रोत्प्रेक्षा ॥२७॥
विमला-श्रीराम ने बाण के अग्रभाग पर जलती अग्निशिखा वाले धनुष की डोरी को कान तक खींचा, उस समय (धनुष और डोरी के मध्य गोलाकार समवकाश होने से ) ऐसा प्रतीत हुआ कि मानों धनुष समुद्रवधार्थ जागकर जम्हाई ले रहा है और मौर्वी के शब्द से मुखर होता हुआ, समुद्र को त्रस्त कर रहा है ॥२७॥ मथ शर विस्फूर्तिमाह
खुहिअज लसिट सारो मुहणिद्धाविअपसारि उक्काणिवहो। आअड्ढिज्जन्तो च्चिअ णज्जइ पडिओ त्ति सापरे रामसरो॥२८॥ [क्षुभितजलशिष्टसारो मुखनिर्धावितप्रसारितोल्कानिवहः ।
आकृष्यमाण एव ज्ञायते पतित इति सागरे रामशरः॥]
आकृष्यमाण एव रामशरः सागरे पतित इति ज्ञायते । अत्र हेतुमाह-कीदृक् । मुखात्फलान्निर्धावितो बहिःप्रसृत उल्कानिवहो यस्मात् । तथा च शिखानिवहनिर्गमद्वारा समुद्रसंबन्धाद्बाण : सागरे पतित इति प्रतीतिरिति भावः। एवं पतनपूर्वमेव क्षुभितेन जलेन शिष्ट: सारो बलं यस्य । तथा च महाशयस्यापि समुद्रस्य क्षोभोऽस्मादेवेत्यर्थापत्त्यापीति भावः ॥२८।।
विमला-श्रीराम के द्वारा खींचे जाते बाण के अग्रभाग से उहकाओं का समूह निकल कर बाहर फैल गया और समुद्र का जल क्षुब्ध हो गया, जिससे
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