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सेतुबन्धम्
[द्वितीय
विमला-तदनन्तर चित्रलिखित दीपों के समान उन वानरों की कान्ति नष्ट हो गयी, लोचनरूप शिखा निश्चल हो गयी, तेज दूर चला गया, इसके साथ ही साथ उनका अपना स्वाभाविक चाञ्चल्य भी विनष्ट हो गया ।।४५॥ अथ वानराणामाकारसंवरणमाहकह वि ठवेन्ति पवङ्गा समुहदसणविसाअविमुहिज्जन्तम् । गलिअगमणाणुराअं पडिवन्थणिअत्तलोअणं अप्पाणम् ॥४६॥ इअ सिरिपवरसेण विरइए दशमुहवहे महाकन्वे
विइओ आसासओ समत्तो॥ [कथमपि स्थापयन्ति प्लवङ्गाः समुद्रदर्शनविषादविमुह्यमानम् ।
गलितगमनानुरागं प्रतिपथनिवृत्तलोचनमात्मानम् ॥] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते दशमुखवधे महाकाव्ये द्वितीय आश्वासकः समाप्तः ।
-**प्लवङ्गाः कथमप्यात्मानं स्थापयन्ति । परावृत्त्य गमने सुग्रीवः शास्तिमाचरेदपकीर्तिश्च भवेदित्यालोच्य परावर्तनेच्छुमपि निवर्तयति । किंभूतमात्मानम् । समुद्रदर्शनजन्यविषादेन मोहमापन्न मिति परावृत्तौ हेतुः। एवं गलितः शास्तिदुष्कीतिभिया नष्टो गृहाभिमुखगमनेऽनुरागो यस्य तमिति स्थापने हेतुः। अत एव प्रतिप थादपसरणपथान्निवृत्ते लोचने यस्य तम् । तथा चापसरणेच्छया प्रतिपथगते अपि लोचने परामर्शदपवतिषातामिति भावः ॥४६।।
समुद्रोत्कर्षदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य द्वितीयाभूदियं शिखा ॥
विमला-वानर समुद्र को देखकर विषाद से मोहग्रस्त हो भाग जाना चाहते थे किन्तु ( सुग्रीव के दण्ड के भय से अथवा अपनी अपकीति के भय से ) उन लोगों ने अपने को किसी-किसी तरह रोक दिया और प्रतिपथ ( लौटने का मार्ग ) पर गये हुये नेत्र को भी लौटा लिया एवं लौट चलने के विषय में अव उनका अनुराग जाता रहा ॥४६।। इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित वशमुखवध महाकाव्य में द्वितीय
आश्वास की विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई।
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