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सरस्वती
[ भाग ३८
फलस्वरूप नई शक्ति का आगमन हुआ। नाजुक सेवा के नहीं किया। इससे लड़ाई को नुकसान हुआ हो, ऐसा निश्चय शौक दबे, और जो तत्त्वज्ञान की बातें नहीं कर सकतीं, करते नहीं बनता। बलिदान मांगनेवाले कार्य किये जाते राजनीति या कारबार की ग्रन्थि नहीं सुलझा सकतीं, भाषण थे, फिर भी नासमझ और अनुदार व्यक्तियों की तरफ़ से करने का जिसमें साहस नहीं, ऐसी शक्ति पूँघट दूर करके इस विषय में टीका की जाती है वह इस स्त्री-मानस को आई और जो काम मिला सो कर स्त्रीत्व को प्रकाशित कर ही अाभारी है। गई-आगे के सुधारों की उत्पन्न की हुई घोर निराशा के इस विलासी वातावरण से श्रावृत्त हुई नारी कार्य की अन्धकार में बिजली चमका गई।
गम्भीरता के अनुरूप सादगी और गम्भीरता न सज सकी। ___आज ये दोनों वायु के प्रवाह से बह रहे हैं। पहला उसने असहकार की प्रवृत्तियों को अनुकुल बनाकर सेवा पुराना होने से सतत बहता रहा, और उसमें नया वायु- में सत्ता के शौक़ की तृप्ति देखी। प्रवाह मिला। दोनों ने अपनी अपनी विशिष्टता सुरक्षित गांधीयुग ने स्त्री को जागृत और बलवान बनाने का रखते हुए भी एक रूप लिया, किन्तु अब यह प्रवाह प्रयत्न किया, साथ ही उसके स्त्रीत्व पीछे का असहकार का बल जाते ही क्या होगा, यह देखने रक्खा। शब्दबल से कार्यबल अधिक आवश्यक है, यह को है। दसरा वायु वज़नदार होने से शायद ज़मीन पर बैठ उसे समझाया, और बरसों के विलायत के असरवाले
और पहला हलका होने से उड़ता रहे। ऐसा होना सुधारकों के भाषण पुरुष-हृदय में स्त्री-सम्मान का जो प्रदीप सम्भव है।
न प्रकटा सके सो इस युग की हलचल ने थोड़े में ही दिखा मालूम होता है कि भारत के स्त्री-समाज में से स्त्रीत्व दिया। स्त्रियों के लिए पुरुष की मान्यताओं में जो उदार की अग्नि कभी नहीं बुझी । हाँ, वर्षों से अज्ञानता की राख परिवर्तन हुआ वह सब कहीं नहीं दीखता। फिर भी जो पड़ी रहने के कारण इस अग्नि की गर्मी कम हो गई कुछ हुआ वही बहुत है। है। प्रारम्भिक सुधारणाकी भावना ने पाश्चात्य पवन की गांधीयुग घर के आवश्यक और अनावश्यक युद्धों का फूंक से इसे उड़ाने का प्रयत्न किया । यह पवन एक टुकड़ी भेद भी कर के बताता है । के मुख के निकला । इस टुकड़ी में स्त्री-पुरुष दोनों थे। स्त्री-सम्बन्धी अादर्श और आर्य सन्नारी की भावना स्त्रियाँ अच्छी तरह आगे की लाइन में खड़ी हुई। इन का प्रभाव पड़े ऐसा प्रचार संयोगों की विचित्रता और वही स्त्रियों में कुमारियाँ और बड़े आदमियों की पत्नियां थीं। कार्य करनेवाली टुकड़ी के अभाव से नहीं हश्रा है। जिन्होंने समाज की दूसरी तरफ़ दृष्टि नहीं डाली थी उन्हें यह किन्तु गांधीयुग ने अपने विशिष्ट विचारों को पेश करके ज्ञान होगा, किन्तु मानसशास्त्र की उन्होंने उपेक्षा ही की। उन्हें गति में रख दिया है। अच्छी वस्तु को बिगाड़ने में देर __प्रवृत्ति ने पृथ्वी पर के आकाश को उज्ज्वल बना नहीं लगती। किन्तु फिर बनाने में समय और प्रयत्न दोनों दिया। कितने ही पुरुषों ने भी सहकार किया । परिणाम की आवश्यकता रहती है। इससे गांधीयुग ने पहले के यह हुआ कि स्त्री स्त्री होने के कारण उच्च है, ऐसी दलीले 'बल' दबाये अवश्य, फिर भी पुन: सिर ऊँचा करने जैसी
आँधी पर चढ़ीं। ऐसे समय में इस वातावरण के विरुद्ध स्थिति में ही वह रहा है। दिन पर दिन नये बनाव बनते जाते का सत्य या असत्य बोलने में असुरक्षिता दिखने लगी। हैं, एक बल दबकर दूसरा बल ऊपर आता है। गांधी जी फलस्वरूप न प्रतिकार हुअा, न तत्त्वज्ञान की वृद्धि । इससे की हलचल होगी, ऐसा उस समय कौन जानता था ? फिर यह प्रवृत्ति बढ़ नहीं सकी। दूसरी तरफ़ इस प्रवृत्ति के ऐसा बल पैदा होगा और स्त्री-विकास की हलचल को वह स्वीकार करनेवालों में शब्दचातुर्य-शब्दच्छल का विकाश योग्य रास्ते पर लगा देगा, ऐसी आशा क्यों न की जाय ? हुश्रा और श्रादर्श की आकांक्षा बढ़ी।
भारतवर्ष का मुख उज्ज्वल रक्खें और अपने गृह-संसार सत्याग्रह के संग्राम ने इसमें की कुछ शक्तियों को को मधुरतम और सुखमय बनाये, ऐसी आर्य महिलायें प्रोत्साहन देकर नया जीवन दिया। इस संग्राम में जितनी शीघ्र बाहर आये, यही हमारी आकांक्षा है। स्त्रियाँ शामिल हुई थीं उन सबों ने कुछ ऐसा जीवन स्वीकार
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