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संख्या ४]
सामयिक साहित्य
कहा था कि "तैयार हों या न हों, हमें लड़ना पड़ेगा, हिन्दी । हिन्दी काई उनका सिखाता नहीं। केवल सुनते सुनते
और अधिकांश में हवाई शक्ति हमारे भाग्य का निणय सीख जाते हैं। ठीक इसी प्रकार साधारण बच्चा बोलना करेगी। हवाई शक्ति ने एबीसीनिया के भाग्य का निर्णय सीखता है। जो सुन नहीं सकते वे स्वयं कोई भाषा नहीं किया है, वह स्पेन में प्रयत्नशील है और वही योरप और बोल सकते । यही गंगेपन का कारण है। संसार के भाग्य का फैसला करेगी। ये विज्ञान के वरदान गंगों का बोलना सिखाया जा सकता है और शिक्षा : हैं, हम उनसे बच नहीं सकते।"
पाने पर वे ठीक ऐसा ही बोलते हैं जैसा हम ग्राप जैसे ___ जब सारा संसार, यहाँ तक कि स्याम ऐसे छोटे छोटे साधारण मनुष्य । 'मूक होइ बाचाल' अब तक जो असंभव की देश इस ससारव्यापी 'महासम्मेलन' के लिए तैयारी उपमा थी, वह सभव-कोटि में श्रागई है। इसकी प्रक्रिया इस कर रहे हैं, हम ३६ करोड़ भारतीय 'शान्त-शान्ति' के सिद्धांत पर अवलिम्बत है कि गंगों के जीभ कंड, तालु अादि मन्त्र का उच्चारण कर रहे हैं । वे देवी शान्ति (अहिसा) इन्द्रियाँ तो होती हैं और वे कुछ अाय-बाय शब्द भी कह का व्रत लिये हुए हैं और अपने आपको असंख्य देवताों लेते हैं, केवल उनके शब्द साथक नहीं होते । हमारा जिलाकी दया पर छोड़ रक्खा है। मैं चाहता हूँ कि कितना संचालन नियमबद्ध प्रणाली से होता है। इसी कारण अच्छा हो कि अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस कमेटी के सब हमारी भाषा बुद्धगम्य होती है। भाषा केवल शब्दों का मेम्बरों के लिए सबसे पहले हवाई उड़ाका बनना अनिवार्य संग्रह हे और शब्द ध्वनियों के योग से बनते हैं। ध्वनियाँ कर दिया जाय। परन्तु हम लोग तो किस्मत पर विश्वास कंट, तालु, जिह्वा, मृधा तथा श्रोष्ठ के संचालन करते हैं, जब कि संसार कार्य में विश्वास करता है। होती है। यथा मुख खोलकर और जिह्वा का नीचे के
तालू में स्थिर रखकर यदि शब्द किया जाय तो 'अ' का उच्चारण होगा। गूंगा देखकर इसका अनुसरण कर
सकता है। थोड़ा मुँह और खोल दे तो 'या' का उच्चारण गूंगों को बोलना सिखाने में सफलता होगा । 'या' कहते समय यदि अोंठ थोड़ा गालाकार कर .
गूगां का बालना सिखाने के लिए प्रायः प्रत्येक दिया जाय तो 'यो' का उच्चारण होगा। थोड़ा और प्रान्त म स्कूल खुल गये हैं। बिहार में भी इस अभाव सिकोड़े जायँ तो 'उ' तथा 'ऊ' का शब्द होगा। इसी की पूति हो गई है। गूगों को बोलना कैसे सिखाया प्रकार सारे स्वरों का उच्चारण अनुकरण मात्र से कराया जाता है, इस सम्बन्ध में पटना र कविचार-विद्यालय जा सकता है। के प्रसिपल श्री गोरखनाथ पांडेय ने 'आज' में एक व्यजना के उच्चारण में कुछ कृत्रिम उपायों का लेख प्रकाशित कराया है। उस लेख का एक अंश प्रयोग किया जाता है । ध्यान करके देखिए कि अाप 'प' यह है
का उच्चारण कैसे करते हैं। यही न कि अोठ कुछ हवा के प्रायः लोगों की धारणा है कि गंगों के जिह्वा नहीं, हलके झोंके से खुलते हैं, पीछे उसमें 'अ' स्वर जोड़ देते होती, इसी कारण वे बोल नहीं सकते अथवा उनकी हैं। गंगा भी आपका अनुसरण करके ऐसा कर सकता है। जीभ किसी कारणवश तालू में सट जाती है, जिससे उसमें और स्वर जोड़ दी।जए बस 'पा', 'पो', 'पू' इत्यादि वे बोलने में असमथ रहते हैं। ये दोनों धारणायें निर्मूल उच्चारण सिद्ध हो जायेंगे। इसी प्रकार 'त्' का उच्चारण हैं । वास्त वक बात यह है कि गंगों के कान में दोप होता जिह्वा के अग्र-भाग का ऊपर के अगले दाँतों के पास है। वे बहरे होते हैं । बहरापन ही उनके गूगेपन का रखकर और भीतर से हलकी हवा के झोंक से खोलने से कारण है । गगापन स्वयं कोई रोग नहीं। इसका अनमान होता है। जब 'प' योर 'त' दोनों व्यजन ठीक हो जायँ इस प्रकार कर लेना चाहए कि हम जो भाषा सुनते आये तो कई शब्द सिखाये जा सकते हैं, जैसे---- 'पत्ता' 'तोता', हैं वही बोलते हैं। बनारस में रहनेवाले बंगाली बच्चे 'तोप', पोत', 'पपीता' ग्रादि शब्दों के अथ सहज में ही द्विभापिये होते हैं। घरों में बंगला बोलते हैं और बाहर बताये जा सकते हैं।
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