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[महाराना कुम्भ का विजयस्तम्भ (चित्तौर) । ]
उदयपुर के सम्बन्ध में हिन्दी में काफी सचित्र लेख प्रकाशित हो चुके हैं। पर यह लेख उन सबसे भिन्न है । इसके लेखक नैपाल के एक सम्भ्रान्त व्यक्ति हैं और आपने एक विशेष दृष्टिकोण से उदयपुर के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये हैं । इस लेख के साथ जो चित्र हैं . वे भी सर्वथा नवीन हैं ।
वम्बर की रात थी जब मैं 'पंजाब - एक्सप्रेस' से पश्चिम की ओर जा रहा था। मेरे दिमाग़ में तरह तरह के ख़याल आ रहे थे कि वह देश कैसा होगा, लोग कैसे होंगे। मैंने सुन रक्खा था कि वह ऐसी जगह है, जहाँ ऊँचे पहाड़ हैं, जिन्होंने बहादुर राजपूतों को श्राश्रय दिया था । राजपूतों की इस वीर भूमि के बारे में मैंने जो कथायें पड़ी थीं उनसे नाना काल्पनिक चित्रों का मानस पटल में उदित होना स्वाभाविक था ।
उदयपुर- यात्रा
लेखक, श्रीयुत दि० नेपाली बी० ए०
जाड़ा शुरू ही हुआ था, तो भी गाड़ी जितना ही पश्चिम की ओर जा रही थी, सर्दी भी उतनी ही बढ़ती मालूम पड़ती थी । मैं इन्टर क्लास का यात्री था । गाड़ी में शोर-गुल इतना था कि नींद नहीं पड़ी ।
लिए वहीं उतर पड़े । देहली मेल के आने में ढाई घण्टे बाकी थे। मैंने अपने मित्र को जो फ़र्स्ट क्लास के पैसेञ्जर थे, वेटिंग रूम में विश्राम करने के लिए कहा। परन्तु वे राजी न हुए और हमने प्लेटफार्म पर ही अपना बिस्तरा लगाया। मुझे अब भी नींद नहीं थी। राजस्थान के ख़याल उसी तरह मेरे दिमाग़ में चक्कर काट रहे थे ।
कोई परिचित आदमी तो वहाँ था नहीं, जिससे मैं उदयपुर के बारे में बातें करता और अपने कल्पित चित्रों से उसकी तुलना करता । कुछ देर बाद मैंने भी वहीं व्हीलर के स्टाल पर अपना बिस्तरा लगा दिया। उसी समय एक रोचक घटना घटी, जो अब भी मुझे हँसा देती है। गाड़ी आने में देर थी और बहुत से मुसाफ़िर इधरउधर टहल रहे थे। इतने में एक सज्जन ने मुझे व्हीलर के स्टाल पर पड़ा देखकर मुझे व्हीलर का एजेन्ट समझ लिया। उन्होंने मेरी ओर छः श्राने पैसे बढ़ाकर कहा'सिनेमा - संसार' की एक प्रति दे दीजिए। मैंने उनसे पैसा
रात में एक बजे का समय था, जब गाड़ी मोगलसराय में पहुँची । हम लोगों को दूसरी गाड़ी बदलनी थी, इस
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