________________
५६०
सरस्वती
[ भाग ३८
छिपा रहता है। क्या मनुष्य उड़ कर उस जगत् में रोगग्रस्त धरोहर को लाकर रक्खा था। हम दस ही नहीं पहुँच सकता था ? मनुष्य के साथ सृष्टिकर्ता मिनिट में वहाँ पहुँच गये। ने इतना अन्याय क्यों किया ? पर क्या सचमुच अन्याय मकान के बाहर बरामदे में कम्बल लपेटे एक आराम किया है ? कौन जाने. बादलों और फलों की भी अपनी कर्सी पर बढिया पडी थी। चेहरे पर उदासी छाई हुई थी. चिन्तायें हों. वेदनायें हों। उनके प्रेम में भी विरह आँखें सूज रही थीं। मुझे देखकर बैठे बैठे हो निराशा हो । जी में तो अाता था कि इस तर्क को मानू , पर बादल भरे क्षीण स्वर में बोली- "श्राप आ गये। बड़ी कृपा के टुकड़ों की उस पागल बनानेवाली सींग सुन्दरता में की। आप भी लगा लीजिए ज़ोर ।" असुन्दरता सूझती ही न थी। मैं बहुत देर तक इस "श्राप घबराइए नहीं।” मैंने ढाढ़स देते हुए कहासमस्या में फँसा रहा । यहाँ तक कि वृक्षों और फूलों से “ईश्वर ने चाहा तो सब ठीक हो जायगा।" खेलनेवाली हवा के झोंकों ने मुझसे भी छेड़छाड़ "ठीक !” बुढ़िया ने मुझे ऐसे देखा मानो एक प्रारम्भ कर दी और उनमें छिपी हुई मादकता ने दो नौसिखिया बालक हूँ। फिर एक वेदना भरी झूठी मुस्कान ही क्षणों में मुझे परास्त कर दिया। मेरे लाख रोकने पर उसके होठों को छकर लुप्त हो गई। भी मेरी आँखें मूंद गई और मेरा सिर बेंच की पीठ पर बुढ़िया को वहीं छोड़कर बरामदा पार कर हम रोगी लुढ़क गया। कह नहीं सकता, कितनी देर तक मैं इस के कमरे में जा पहुँचे। दरवाज़े से ज़रा हटकर रोगी की अवस्था में पड़ा रहा, कितने स्टेशन आये और चले गये। चारपाई थी। उसी पर आँखें मूंदे और बेसुध वह बालक पर जब मेरी आँख खुली तब गाड़ी अपनी चाल धीमी पड़ा था। साँस तेज़ी से चल रही थी। उसके पास करती हुई सोलन पर ठहरने जा रही थी। मेरे आँखें ही एक कुर्सी पर बैठी नर्स अँगरेज़ी का एक उपन्यास मलते मलते वह ठहर भी गई। मैंने उठकर खिड़की से पढ़ने में निमग्न थी। शायद स्वर्गीय गार्विस महोदय की बाहर झाँका । मलिन मुख लिये एक घिसा हुआ सा कोई कृति थी। हमें देखकर वह झटपट उठ खड़ी हुई । कम्बल ओढ़े और अपने उत्सुक नेत्रों को गाड़ी पर किताब को बन्द कर कुर्सी पर रख दिया । गड़ाये जगतराम एक लैम्प के खम्भे से लगा खड़ा था। "ये लाहौर से डाक्टर आये हैं।" जगतराम ने मुझे देखकर वह मेरी ओर दौड़ा।
मेरा परिचय कराया। "क्यों । क्या कष्ट है उसे ?” मैंने चिन्ता भरे स्वर में "ज़रा चार्ट तो दिखलाना ।” मैंने पासवाली कुर्सी गाड़ी से उतरते हुए पूछा।
पर बैठते हुए कहा। "निमोनिया ।" उसने रुंधे हुए गले से जवाब दिया। उसने चार्ट मेरे हाथ में दे दिया, जिससे पता चला
"निमोनिया ?" यह तो अनर्थ हो गया। तपेदिक के कि लड़के को चौथे ही दिन से लगातार १०४ और १०५ रोगी के लिए यह प्रायः घातक ही सिद्ध होता है । पर एक डिग्री के करीब ज्वर पा रहा था और नाड़ी की गति भी डाक्टर इतना निराशवादी क्यों हो? शायद इसका बहुत तीव्र थी। बाक़ी बातें भी कुछ विशेष सन्तोष-जनक अाक्रमण इतना तीखा न हो। यत्न करने से शायद अब न थीं। मैंने चार्ट पृथ्वी पर रख दिया और स्वयं बच्चे की भी वह अभागा बालक बच जाय । "कब से है ?" परीक्षा करने लगा। जितनी मैं समझता था, उसकी अवस्था "अाज चौथा दिन है।"
उससे कहीं अधिक ख़राब थी। उसका शरीर गंगारे की "होश में तो है ?"
भाँति जल रहा था। निमोनिया डबल था। दोनों फेफड़े "नहीं।"
बहुत बुरी तरह से ग्रसित थे। उन्माद के चिह्न भी साफ़ इससे अधिक पूछना मैंने उचित न समझा। अपना दीख रहे थे। ऐसी अवस्था में तो उसका वह रात काटना सामान एक कुली के हवाले करके मैं जगतराम के साथ भी मुझे कठिन प्रतीत होता था। ... हो लिया। स्टेशन से कुछ ही दूरी पर चीड़ के वृक्षों से "ज़रा नुसखे तथा दवाइयाँ भी दिखाना ।” मैंने नर्स घिरे एक एकान्त और सुन्दर बँगले में जगतराम ने अपनी से फिर प्रार्थना की।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com