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सामायक साहित्य
हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उर्द नहीं की। उसने पहले तो भारतीय संस्कृति का नाम हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उर्दू का झगड़ा अभी और निशान तक मिटा देना चाहा था; किन्तु इसमें उसे चला ही जा रहा है। हाल में इस सम्बन्ध में श्री सफलता न मिली। यह विदेशी संस्कृति असहयोग कर के राहुल सांकृत्यायन, प्रोफेसर अमरनाथ झा और अलग ही रहती तो उतनी कड़वाहट कभी न पैदा होती; पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने विचार प्रकट किन्तु उसका ध्येय तो हमेशा अपनी प्रतिद्वंद्वी संस्कृति पर किये हैं। श्री राहुल सांकृत्यायन का कहना है कि प्रहार करने का रहा। जब भारतीय और अरबी संस्कृति यह दो संस्कृतियों का झगड़ा है और तब तक सम- का यही भाव गत सात सौ वर्षों से आज तक चला श्रा झौते की सूरत नहीं निकल सकती जब तक अरबी- रहा है तो किसी पारस्परिक समझौते की क्या अाशा हो फारसी के हिमायती भारतीय संस्कृति से सुलह सकती है ? । करने की इच्छा न करें। प्रोफेसर अमरनाथ झा उर्दू को शहरी और हिन्दी को जनता की भाषा कुछ भाई अपनी निष्पक्षता दिखलाने के लिए यह कहते हैं और हिन्दुस्तानी के रूप में दोनों का भी कहने लगे हैं कि हमें हिन्दी का न संस्कृत शब्दों से सम्मिलन उन्हें पसन्द नहीं है। पंडित जवाहरलाल भरना चाहिए और न अरबी शब्दों से । यह भी भारी भूल जी का कहना है कि भाषायें जबरदस्ती नहीं बनती। है। अरबी भारतीय भाषा नहीं है और न जिस भाषामक़ाबिला नहीं. सहयोग के भाव से हिन्दी-उर्द दोनों वंश से भारतीय भाषाओं का सम्बन्ध है उससे इसका की उन्नति हो सकती है। नीचे हम इन तीनों विद्वानों सम्बन्ध ही है। इसके विपरीत संस्कृत हिन्दी की जननी के वक्तव्यों के कुछ महत्त्व-पूर्ण अंश उद्धृत है । हिन्दी की विभरि
है। हिन्दी की विभक्तियाँ और क्रियापद तक संस्कृत पर करते हैं।
अवलम्बित हैं । इस प्रकार यदि विचार कर के देखा जाय श्री राहुल सांकृत्यायन के विचार तो संस्कृत का यह स्वाभाविक अधिकार है कि वह हिन्दी-उर्दू का झगड़ा बहुत पुराना है। बीच में हिन्दी-कोप को अपने शब्द-कोप से भरे । हाँ, इसमें यह लोग उसे भूल- से गये थे; लेकिन इस साल से फिर उसकी खयाल तो ज़रूर ही रखना पड़ेगा कि शब्द उतने ही परिआवाज़ सुनाई देने लगी है। कुछ लोग इसके लिए बहुत माण में लिये जायँ, जितने अासानी से हजम हो सके । कुछ लालायित हैं कि किसी तरह यह दूर किया जाय। यदि लोगों का कहना है कि हमें क्या अावश्यकता है शब्दों को हिन्दी-उर्दू का झगड़ा किसी प्रकार दूर हो जाय तो सब संस्कृत से लेने की ? हमें गाँवों की ओर चलना चाहिए । को प्रसन्नता होगी; किन्तु इस झगड़े के कारण को अच्छी यदि आप तनिक विचार करें तो यह बात भी हास्यास्पद तरह से जाने बिना इसे शान्त करने का प्रयास करना ही होगी। भला, गांवों से इस वैज्ञानिक युग के लिए 'नीम हकीम ख़तरए जान'-सा ही होगा । वास्तव में हिन्दी- अपेक्षित शब्द कहाँ से मिलेगे ? किसी समय इसी धुन में उर्दू के झगड़े का मूल कारण है दो संस्कृतियों का पार- मस्त एक पंजाबी सज्जन ने 'छात्रावास' का पर्याय 'पढ़ास्परिक झगड़ा। इनमें से एक भारतीय संस्कृति है, जो कुओं-कोट्ठा' बनाया था। वास्तविक बात तो यह है कि हिन्दी की हिमायती है और दूसरी विदेशी संस्कृति है, जिसने हमारे अाज के प्रयोग के लिए अपेक्षित वैज्ञानिक शब्दों अपने मूल रूप से बहुत-से अंशों में विकृत हो जाने पर की प्राप्ति के लिए ग्राम की साधारण जनता की बोलचाल भी, भारतीय संस्कृति से कभी सुलह करने की कोशिश की शरण लेना तो वैसा ही है, जैसे मोटर के हलों और
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