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सरस्वती
लेख का उत्तर देते हुए बड़े सुन्दर ढङ्ग से खंडन किया है । वह लिखता है -
मुसलमान मन्त्रियों के कारण हिन्दुत्रों पर कौन-सी विपत्ति टूट पड़ेगी और मुसलमान जनता को कौन-सा बिहिश्त मिल जायगा, यह 'लीडर' ही समझता होगा । जिन्हें देखने को आँखें और समझने के जानते हैं कि नवाब, राजा और 'सर' की चाहे वे हिन्दू हो या मुसलमान, आर्थिक
चाहे
लिए बुद्धि है वे श्रेणी के लोग, तथा राजनैतिक एक ही हैं। इसी प्रकार किसान और मज़दूर, हिन्दू या मुसलमान, एक ही हैं । हम 'लीडर' से पूछते हैं कि देश के सामने मुख्य प्रश्न क्या है ? जनवर्ग की दरिद्रता, किसानों की तबाही, मज़दूरों की दुर्दशा, मध्यवर्ग का आर्थिक पतन या यह कि किस सम्प्रदाय के कितने लोग मन्त्रिमण्डल में वर्तमान हैं। सहयोगी को इतना समझने की बुद्धि तो होगी ही कि राजा और नवाब, चाहे वे हिन्दू हो या मुसलमान अपने किसानों की तबाही के लिए समान रूप से ज़िम्मेदार हैं। मुसलमान नवाब क्या हिन्दू किसानों से अधिक लगान वसूल करेगा और मुसलमान असामियों का सारा बकाया और क़र्ज़ माफ़ कर देगा? यदि नहीं तो उनके मन्त्री बनने से मुसलमान जनता को कौन-सा राज्य मिल गया और कौन-सी विपत्ति हिन्दू जनता के सिर पर मँडरायेगी ? व्यर्थ में हिन्दू-मुसलिम प्रश्न को इस स्थान पर घुसेड़कर मुख्य प्रश्नों को पीछे ठेल देना कहाँ की देश सेवा है ? जनता ऐसी मूर्ख नहीं है जो किसी के बहकावे में आ जाय । वह देख रही है कि हिन्दू-हित के रक्षक ग्राज मन्त्री बनने के लिए उन्हीं मुसलिम मन्त्रिमण्डलों में सम्मिलित हो रहे हैं जिन पर 'लीडर' रो रहा है । तिरवा के राजा साहब किसी समय इस 1 प्रान्त की हिन्दू सभा के प्रधान थे । पर आज वे छतारी के नवाब की दरबारदारी कर रहे हैं । मन्त्रित्व मिलते देखकर उनका हिन्दू-प्रेम काफूर हो गया। सीमाप्रान्त की हिन्दू-सभा के प्रधान को मुसलिम प्रधान मन्त्री का हाथ बँटाने में कुछ भी संकोच नहीं हो रहा है। पंजाब के प्रायः सारे हिन्दू-हित-रक्षक मुसलमान प्रधान मन्त्री के सहयोगी बन गये हैं। 'लीडर' के हृदय में यदि वस्तुतः मुसलिम मंत्रिमण्डलों की स्थापना का दुःख है तो वह इन हिन्दू हित रक्षकों के नाम पर रोये जो श्राज उन मन्त्रिमण्डलों
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[ भाग ३८
की स्थापना के कारण तथा उनके अस्तित्व के समर्थक हो रहे हैं ।
चीन में अफ़ीमचियों को फाँसी
अफ़ीम ने चीनियों का बहुत अहित किया है । इस नशे ने एक प्रकार से उनका जीवन ही बरबाद कर दिया है। क्रीम से छुटकारा पाने के लिए वहाँ की सरकार ने अब कड़े नियम बनाये हैं । यहाँ तक कि जो अफ़ीम न छोड़े उसे फाँसी तक की सजा देने का क़ानून बन गया है । इस सम्बन्ध में 'भारत' हाल में एक ज्ञातव्य लेख प्रकाशित हुआ है । उसे हम यहाँ उद्धृत करते हैं
में
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने चीनवालों में अफीम को जो ज़बरन प्रचार किया था उसका मूल्य चीन को अपनी स्वाधीनता से देना पड़ा है। इतना ही नहीं, अब तक उसका अपने सैकड़ों निवासियों के प्राण देकर भी अभिशाप से छुटकारा नहीं मिल सका है ।
चीन की सरकार ने सन् १९३५ में चियांग काई- शेक की देख-रेख में अफ़ीम के विरुद्ध जिहाद खड़ा करने का निश्चय किया। सरकार ने इस विषय में कड़े नियम बनाये । पहली बार अपराध करनेवालों को गरम लोहे से 1 दागने की सज़ा दी जाने लगी और बार-बार अपराध करनेवालों को फाँसी की सज़ा का नियम बना दिया गया । इस नियम के अनुसार १९३५ में ९६५ व्यक्तियों को फाँसी दी गई। गत वर्ष इससे भी अधिक व्यक्तियों की जानें अफ़ीम के कारण गई। फिर भी इस सत्यानाशी नशे में कमी न हुई । इस वर्ष यह नियम बनाया गया है कि प्रत्येक अफीम खानेवाले को प्राणदंड दिया जायगा । इससे अवश्य उल्लेखनीय कमी हुई है। चीन की सरकार दण्ड देने के सिवा अफ़ीमचियों की आदत में सुधार करने का भी प्रयत्न करती है। इसके लिए देश भर में सेनेटोरियम जैसी संस्थायें खोल दी गई हैं, जिनमें लोगों का इलाज मुफ़्त किया जाता है। प्रदर्शन के लिए अफीम की होली भी सार्वजनिक स्थानों में जलाई जाती है । सन् १७७३ के पहले चीन में कोई अफ़ीम का नाम भी न जानता था । १७७६ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने केन्टन के बन्दरगाह में अफ़ीम की १००० पेटियाँ उतारीं ।
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