Book Title: Saraswati 1937 01 to 06
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 629
________________ सख्या ६] . सामयिक साहित्य . बिजली की कलों की शक्ति को बाबा आदम से चले आये भी विशेषता है, उसका उद्गम शुद्ध संस्कृत से है, हलों में हूँढ़ना। जिसके कारण हिन्दी का सम्बन्ध बँगला, मराठी, गुजराती, प्रोफेसर अमरनाथ झा का वक्तव्य तामिल, मलयालम, तेलगू, कर्नाटकी तथा भारतवर्ष की मैंने हिन्दी और उर्दू, दोनों भाषाओं को पढ़ा है, अन्य मुख्य भाषाओं से भी है। दक्षिण भारत की भाषायें मुझे दोनों के साहित्य से प्रेम है और यद्यपि मैं जानता हूँ यद्यपि जन्म से द्रविड़ हैं, किन्तु संस्कृत का उन पर इतना कि दोनों ही भाषात्रों का जन्म इसी देश में हुआ है; अधिक प्रभाव है और उन के शब्द-कोष में संस्कृत के किन्तु फिर भी दोनों का विकास दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में इतने सहस्र शब्द हैं कि मातृभाषा से भिन्नता होने पर भी हुआ है। दोनों की अपनी-अपनी परम्परायें और अपने- दक्षिण-भारत के निवासियों का हिन्दी के समझने में अधिक अपने आदर्श हैं, जिनका त्याग देने से उनकी अवनति ही कठिनाई नहीं मालूम होती। मदरास-प्रान्त और मैसूर में होगी। दोनों भाषाओं के पास अपना-अपना सम्पन्न साहित्य हिन्दी-प्रचार के कार्य की अाशातीत सफलता का कारण है, विशेषतः अपने कविता-साहित्य में तो उनके पास ऐसी केवल यही नहीं कि हिन्दी सीखने में सुगम है बल्कि यह निधियाँ हैं जो किसी भी भाषा के लिए गौरव की वस्तु हो भी है कि भारतवर्ष के अधिकांश भागों में समझी जा सकती हैं। दोनों भाषाओं के विकास के साथ उनकी सकनेवाली भाषा, हिन्दी को सीखना उपादेयता की भिन्न-भिन्न विशेषतायें पैदा हो गई हैं, जो हमारी राष्ट्रीय दृष्टि से भी अच्छा है। दोष रहित निस्सन्देह हिन्दी भी संस्कृति का स्थायी अंग बन गई है। एक भाषा के सृजन नहीं है । देहात की भाषा होने के कारण हिन्दी शहर की के उददेश से हिन्दस्तानी के अभिभावकों को बहुत-सी भाषा की भाँति मार्जित, सुकुमार और नागरिक नहीं है। बाधात्रों का सामना करना पड़ेगा, जिनमें से कुछ दुर्जेय किन्तु अपने इस दोष के कारण ही तो वह सजीव बनी रह भी होंगी। लिपि कि समस्या ही सबसे बड़ी समस्या नहीं सकी है, इसी कारण वह जरा-जीर्ण, निष्ण है-यद्यपि बड़ी समस्यायों में से यह भी एक है । समस्या नीरस होने से बच सकी है। वास्तव में यह है कि दोनों भाषाओं की पृथक्-पृथक् जब हम लोगों में इस कदर पारस्परिक अविश्वास साहित्यिक विशेषतायें हैं और दोनों की संस्कृतियाँ भी और सन्देह है तो फिर इस वक्त 'हिन्दी' और 'उर्दू' की . भिन्न-भिन्न हैं, साथ ही दोनों के अपने-अपने प्रेमी और जगह 'हिन्दुस्तानी' का नाम लेना उचित नहीं । जहाँ मैं अभिभावक हैं। दोनों भाषाओं के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की बात कहता हूँ, उर्दू लगभग एक शताब्दी से उत्तरी भारत में शहरों वहाँ मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि युक्तप्रांत में की भाषा रही है, जहाँ मुस्लिम संस्कृति के केन्द्र होने के रहनेवालों का कर्तव्य है कि उन्हें हिन्दी और उर्दू, दोनों कारण मुस्लिम संस्कृति का अधिक प्रभाव रहा है। उस को ही सीखना और जानना चाहिए। एक समय था जब संस्कृति के प्रभुत्व के कारण उर्दू शाही दरबारों की नार्मल और हाई स्कूल में दोनों भाषाओं की जानकारी भाषा बन गई और जिन लोगों का दरबार अथवा अनिवार्य थी। शायद काग़ज़ पर तो यह नियम अब भी शासन से सम्पर्क रहा उन्होंने इस भाषा को अपना मौजूद है, लेकिन अावश्यकता इस बात की है कि यह लिया। __ कार्यान्वित भी किया जाय । यदि शिक्षकवर्ग को कुछ हिन्दी का कई शताब्दियों का अपना अनवरुद्ध इति- उत्साह हो और शिक्षा विभाग की तरफ़ से कुछ सख्ती की हास है। हिन्दी कविता-साहित्य को--तुलसीदास और जाय तो उसका फल श्राश्चर्य-जनक होगा। यदि दोनों सूरदास की अमर निधियों को भी-गाँवों की जनता पढती भाषाओं का अध्ययन होने लगेगा तो उससे लाभ ही और समझती है। उत्तरी भारत में शायद ही कोई होगा। दोनों के साहित्य के ज्ञान से सहृदयता बढ़ेगी और ऐसा गाँव हो जहाँ शाम को पेड़ के नीचे अथवा वास्तविक साहित्य-प्रेम का प्रादुर्भाव होगा। मैं इसके पक्ष अलाव के पास आप ग्रामीणों की टोली में हिन्दी में नहीं कि आज तक के ऐतिहासिक विकास को भुलाकर कविता का पाठ होता हुआ न देखें। हिन्दी की एक और फिर सब कुछ नये सिरे से शुरू किया जाय । हिन्दी और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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