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संख्या ६]
पक्ष में नहीं हैं ।" मेरा निवेदन है कि अरबी-फारसी शब्द तो आप निकाल ही नहीं सकते । आपके ऐसी कोई चेष्टा करते ही देश का राजनैतिक वायुमण्डल बिगड़ जायगा, मुसलमान रूठ जायँगे । परन्तु संस्कृत के शब्दों का बहिष्कार तो आप न जानते हुए भी कर रहे हैं । 'समूल नाश' की जगह 'नेस्तनाबूद ' 'फूट' की जगह 'नाइत्तिफ़ाक़ी' और 'भयावह' की जगह 'ख़तरनाक' लिखना संस्कृत के शब्दों का बहिष्कार नहीं तो और क्या है। यदि आप कहें कि समझाने के लिए लिखा है तो 'अनी हिलेशन', 'iseयूनियन' और 'डेंजरस ' भी तो कहीं लिखा होता । मुसलमान से डरना और अँगरेज़ के सामने अकड़ना, यह है ?प मुसलमानी संस्कृति को तो गले लगाते हैं, परन्तु " पश्चिमी संस्कृति की प्रभुता को मज़बूत" नहीं बनने देना चाहते। क्यों ? इस्लामिक संस्कृति में ऐसे क्या सद्गुण हैं जो पश्चिमी संस्कृति में नहीं !
जो अरव और ईरानी भारत में आकर बस गये हैं अथवा जिन भारतीयों ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया है, न्याय और देश-प्रेम चाहता है कि वे अरबी-फारसी को छोड़कर इस देश की भाषा को ही अपनायें । हमने ग्राज तक इंग्लैंड या जापान में बसनेवाले किसी अरव या ईरानी को अँगरेज़ों या जापानियों को अरबी-फारसी शब्द अपनी भाषा में घुसेड़ने का विवश करते नहीं सुना। फिर भारत का ही बाबा आदम क्यों निराला है ? राष्ट्र-भाषा के नाम पर जिस प्रकार की गँदली भाषा उपर्युक्त मण्डली लिखने लगी है, वैसी उर्दू या जिसे श्री कालेलकर जी फ़ारसी रस्म ख़त में हिन्दी कहते हैं, लिखते मैंने एक भी मुसलमान विद्वान् को नहीं देखा । जिस प्रकार कांग्रेस ने मुसलमानों की अनुचित माँगों के सामने सिर झुकाकर और ख़िलाफ़त जैसा श्रान्दोलन खड़ा करके राष्ट्रीय दृष्टि से बड़ी भारी भूल की थी और जिसका कटु फल देश को व चखना पड़ रहा है, मैं समझता हूँ, उपर्युक्त राष्ट्र-भाषा प्रचारक मण्डली की चेष्टायें भी वैसे ही दुष्परिणाम उत्पन्न करेगी। मुसलमान तो संस्कृत के शब्दों को अपनायेंगे नहीं, हाँ, तर्क-जीवी हिन्दू संस्कृत का परित्याग अवश्य कर देंगे ।
हमारी राष्ट्र-भाषा कैसी हो
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एक राष्ट्र-लिपि बनाने का विचार बड़ा शुभ है । परन्तु उसमें भी सबको प्रसन्न करने की नीति हानिकारक सिद्ध
फा० ८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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होगी । पंजाब में उर्दू, गुरुमुखी और हिन्दी - तीन लिपियाँ प्रचलित हैं । सिख और मुसलमान तो गुरुमुखी और उर्दूको छोड़ने का तैयार नहीं, हाँ, नपुंसक हिन्दुओं में किसी बात पर दृढ़ रहने की शक्ति नहीं, उनको हिन्दी से हटा कर - चाहे किसी ओर लगा दीजिए । नागरी लिपि की काट-छाँट में जितना समय और श्रम व्यय किया जा रहा है, यदि उतना हिन्दुत्रों में नागरी के प्रति प्रेम को दृढ़ करने में लगाया जाय तो अधिक उपकार की आशा है । हमारी नागरी लिपि जापान की लिपि से तो अधिक दोषपूर्ण नहीं | क्या जापान उसी लिपि को रखते हुए स्वतंत्र और एकता के सूत्र में श्राद्ध नहीं ? मैंने सुना है, जापानी-लिपि वर्णमाला नहीं, बरन उसका एक एक अक्षर एक एक शब्द या वाक्य का द्योतक है । उस ग्रक्षर का उच्चारण जापान और चीन के भिन्न भिन्न भागों में चाहे भिन्न भिन्न हो, परन्तु लिखा जाने पर उसका अर्थ सर्वत्र एक ही समझा जायगा । रूसी सोविएटों ने अपनी एकता को दृढ़ करने के लिए किसी नई लिपि का निर्माण नहीं किया, वरन एक पुरानी वर्णमाला का ही जीर्णोद्धार करके उसका प्रचार किया है। भारत की राष्ट्र-भाषा हिन्दी और राष्ट्र-लिपि नागरी होने से ही देश का कल्याण है, इस बात को स्वीकार कर हमें इनके प्रचार एवं उद्वार में दृढ़तापूर्वक लग जाना चाहिए | यापकी सफलता चौर शक्ति को देखकर दूसरे लोग, यदि उनमें देश-प्रेम की भावना है, स्वयमेव आपके साथ श्रा मिलेंगे । इस प्रकार मिन्नतें और चापलूसियाँ करने से कुछ लाभ न होगा । इससे हिन्दी - प्रेमियों का भी संगठन न रहेगा और दूसरे लोग भी श्राप से न मिलेंगे ।
श्रीयुत हरिभाऊ उपाध्याय 'मेरी कहानी' की भाषा के संबंध में कहते हैं कि यह अनुवाद बहुत कुछ श्री जवाहरलाल जी की भाषा में हुआ है । अर्थात् अगर मूल लेखक खुद हिन्दी में लिखते तो वह हिन्दी ऐसी ही होती । मेरी राय में ऐसी अटपटी भाषा लिखने के लिए यह कोई पर्याप्त कारण नहीं। श्री जवाहरलाल जी राजनैतिक विषयों में नेता और प्रमाण हो सकते हैं, परन्तु इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं कि वे प्रत्येक बात में नेता और प्रमाण हैं । विलायत से नवागत कोई अँगरेज़ अथवा श्री अणे, अथवा श्री सत्यमूर्त्ति या श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसी
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