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सरस्वती
विदेशी भाषाओं में से नये और उपयोगी शब्द लेकर श्रात्मसात् कर लेती है । फिर उनका ऐसा रूपान्तर होता है कि पता ही नहीं लगता कि वे शब्द किसी विदेशी भाषा के हैं या स्वदेशी भाषा के । परन्तु पराधीन निर्बल जाति पर जब कोई सबल जाति प्रभुत्व जमाती है तब वह अपनी भाषा अपना रहन-सहन और अपना धर्म उसके गले में हँसने का यत्न करती है । निर्बल जाति कुछ काल तक तो विजेता के उस सांस्कृतिक और भाषासम्बन्धी' आक्रमण का प्रतिवाद करती है, परन्तु जब उसमें जीवट नहीं रह जाती तब चुपचाप हार मानकर उन दासता के चिह्नों का आभूषण समझकर धारण कर लेती है ।
यू० पी० में मुसलमानों का स्थिर राज्य देर तक रहा है। आगरा, लखनऊ, दिल्ली इस्लाम के केन्द्र रहे हैं । इसलिए यू० पी० ही उर्दू का गढ़ है । वहाँ हिन्दू परिवारों की स्त्रियाँ भी 'नमस्ते' के स्थान में 'दुत्रा - 'सलाम' कहती हैं । यू० पी० की अदालत की भाषा भी उर्दू है । यद्यपि हिन्दी को भी अदालतों में स्थान दिया गया है, तथापि कचित् ही कोई ऐसा नगर होगा, जहाँ अदालत की भाषा हिन्दी हो । काशी तक में सारा अदालती काम उर्दू में होता है । श्री मालवीय जी जैसे हिन्दी-प्रेमियों के उद्योग के रहते भी अभी यू ० पी० उर्दू - श्राक्रान्त ही है । उसी यू० पी० की भाषा को हिन्दी, हिन्दी - हिन्दुस्तानी और राष्ट्र भाषा कहकर दूसरे प्रान्तों पर लादा जा रहा है । फिर आश्चर्य की बात यह है कि जिस मार्ग पर हिन्दी स्वाभाविक रूप से चल रही है उसे उधर से हटाकर दलदल में फँसाया जा रहा है। पुस्तकों और पत्रिकाओं की हिन्दी तो कदाचित् यू० पी० में कहीं भी नहीं बोली जाती । वहाँ की भाषा तो अभी मुसलमानों की दासता से निकलने का यत्न ही कर रही थी कि यह राष्ट्रभाषा प्रचारक मण्डली 'जज़बात और वाक़यात' के गोले उस पर फेंकने लगी । मैं नहीं कह सकता, गोंडा, बस्ती एवं गोरखपुर के गाँवों में लोग 'जज़बात और वाकयात' जैसे शब्द समझते होंगे। फिर यह भाषा नगर और गाँव की कैसे हुई ? साहित्यिक भाषा बोल-चाल की भाषा से सदा अलग रहेगी । इतिहास और विज्ञान के लिए आपको नये नये शब्द गढ़ने ही पड़ेंगे। यदि आप उनक संस्कृत से न गढ़कर अरबी-फारसी से गढ़ेंगे तो
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[ भाग ३८
विदेशी
'घर से वैर अवर से नाता' की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए आप भारत की भाषा सम्बन्धी एकता साधित न करके अधिक पृथकत्व का ही कारण बनेंगे । अँगरेज़ी भाषा है । उसे सीखने में बरसों लग जाते हैं । परन्तु कितनी भी कठिन पुस्तक हो, कभी कोई भारतीय उसकी अँगरेज़ी के कठिन या दुर्बोध होने की शिकायत नहीं करता। इसके विपरीत संस्कृत का कोई छोटा-सा भी शब्द आ जाय तो भाषा की क्लिष्टता की शिकायत होने लगती है । इसका कारण कदाचित् यह है कि अँगरेज़ी से अनभिज्ञता प्रकट करना अपने को सभ्य समाज की दृष्टि में गिराना समझा जाता है, परन्तु हिन्दी की क्लिष्टता की शिकायत करना बड़प्पन और भाषा-तत्त्व का विशेषज्ञ होने का लक्षण है । यदि फ़ारसी अरबी के अनावश्यक और गला घोंटू शब्दों का रखना अतीव आवश्यक है तो अँगरेज़ी ने ऐसा कौन भारी अपराध किया है ? उसे अपनाने से तो सारे संसार के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । अरव और फ़ारस से अँगरेज़ सभ्य और शक्तिशाली भी अधिक हैं ।
बात वास्तव में यह है कि केवल कोरी युक्ति और तर्क के घोड़े दौड़ाने से कुछ नहीं बनता । संग असत्य भी संगठित सत्य को दबा लेता है । अन्याय पर होते हुए भी इटली अबीसीनिया को हड़प बैठा । संसार में कर्मयोगी की ही जीत है । दर्शन - शास्त्र के पुजारी हिन्दुत्रों की सौ सम्मतियाँ हैं । कोई कहता है, बँगला राष्ट्र-भाषा होनी चाहिए, कोई अँगरेज़ी के गुण गा रहा है, कोई हिन्दी के साथ व्यभिचार करके ऐसी भाषा तैयार करने की चेष्टा कर रहा है जो श्राधा तीतर और आधा बटेर है, कोई "मेरा फ़ादर - इन-ला मेरी वाइफ को बहुत बुरी तरह ट्रीट करता है" ऐसी भाषा का ही प्रेमी
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रहा है । सारांश यह है कि हिन्दुओं के जितने मुँह उतनी ही बातें हैं । वाग्वीरता बहुत है, कर्मण्यता कुछ भी नहीं । उधर मुसलमान काश्मीर से कन्या कुमारी तक एक स्वर से उर्दू के लिए पुकार कर रहे हैं। जिसका परिणाम यह है कि उन्हें सफलता हो रही है । बिहार जैसे प्रान्तों में भी उर्दू अदालत की भाषा हो गई है।
काका कालेलकर कहते हैं कि "हम राष्ट्र-भाषा में से संस्कृत और अरबी-फारसी शब्दों के निकाल डालने के
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