Book Title: Saraswati 1937 01 to 06
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 606
________________ धारावाहिक उपन्यास 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ८८८८८८८८८८८८७७७७७७७७७ ७ ७७७७७७७७७७७७७७७७७८८८८८८८८८८ शनि की दशा 50000000७७७७७७७ अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त मिश्र राधामाधव बाबू एक बहुत ही श्रास्तिक विचार के आदमी थे । सन्तोष उनका एक-मात्र पुत्र था। कलकत्ते के मेडिकल कालेज में वह पढ़ता था। वहाँ एक बैरिस्टर की कन्या से उसकी घनिष्ठता हो गई । उसके साथ वह विवाह करने को तैयार हो गया । परन्तु वह बैरिस्टर विलायत से लौटा हुआ था और राधामाधब बाबू की दृष्टि में वह धर्मभ्रष्ट था, इसलिए उन्हें यह सह्य नहीं था कि उसकी कन्या के साथ उनके पुत्र का विवाह हो । वे उस बैरिस्टर की कन्या की ओर से पुत्र की प्रासक्ति दूर करने की चिन्ता में पड़े ही थे कि एकाएक वासन्ती नामक एक सुन्दरी किन्तु माता-पिता से हीन कन्या की ओर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने उसी के साथ सन्तोष का विवाह कर दिया । परन्तु सन्तोष को उस विवाह से सन्तोष नहीं हुआ। वह विरक्त होकर घर से कलकत्ते चला गया। इससे राधामाधव बाबू और भी चिन्तित हुए । वे सोचने लगे कि वासन्ती का जीवन किस प्रकार सुखमय बनाया जा सके। एक दिन उन्होंने तार देकर सन्तोष को बुलाया और समझा-बुझाकर उसे ठीक रास्ते पर लाने की कोशिश की। परन्तु पुत्र पर जब राधामाधव बाबू की बातों का ज़रा भी प्रभाव न पड़ा तब वे बहुत निराश हुए। उन्होंने एक दानपत्र के द्वारा अपनी सारी सम्पत्ति वासन्ती के नाम लिख दी और इस बात की व्यवस्था कर दी कि इस दानपत्र ' का भेद उनकी मृत्यु से पहले न खुलने पावे। ग्यारहवाँ परिच्छेद . रास्ते में सन्तोष को देखते ही सुषमा ने मोटर खड़ी रास्ते में मुलाकात कर दी थी। उसने उन्हें मोटर में बैठाल लिया और कहने साक दिन की बात है। कुछ अावश्यक चीज़-वस्तु लगी-कहिए सन्तोष भाई, आप यहाँ कैसे ? खरीदने के लिए सन्तोष बाहर निकला था। बाज़ार सुषमा को सामने देखकर सन्तोष लज्जा के मारे गड़ा से निवृत्त होने पर वह धर्मतल्ला की मोड़ पर आकर खड़ा जा रहा था। उसके जी में आता था कि मैं इसी समय हो गया और ट्राम की राह देखने लगा। इतने में पीछे से मोटर पर से उतर जाऊँ, किन्तु पैर मानो उठना ही नहीं एक मोटर की अावाज़ सुनाई पड़ी। वह उतावली के चाहते थे। बहुत दिनों के बाद सुषमा को देखकर मानो साथ एक किनारे की अोर हट रहा था कि एकाएक आरोही उसका शरीर सामर्थ्यहीन होता जा रहा था, उसके मुँह से की अोर उसकी दृष्टि पड़ी। उसने देखा, उस मोटर कोई शब्द नहीं निकल रहा था, जिह्वा सूखी जा रही थी। में सुषमा बैठी थी और वह मुस्कराती हुई उसी की ओर वह किसी प्रकार भी अपनी अवस्था को छिपा नहीं सकता ताक रही है। सुषमा की दृष्टि से दृष्टि मिलते ही सन्तोष था। सुषमा उसका अान्तरिक भाव बहुत कुछ ताड़ गई ने उसकी अोर से अपनी दृष्टि फेर ली। क्षण ही भर के और कहने लगी-कुछ बोलते क्यों नहीं हैं ? क्या हम बाद उसने फिर देखा तो सुषमा उसे बुला रही है। लोगों से रुष्ट हो गये हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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