Book Title: Saraswati 1937 01 to 06
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 604
________________ सरस्वती [ भाग ३८ - तुम ज्यों की त्यों वैसी ही छोटी बिल्ली बनी हुई हो। विचार नहीं। रूखी-सूखी रोटी पर उसको परतंत्रता स्वीकार तीन वर्ष के बाद भी वही चंचलता; वही घुड़दौड़ ! चूहे करनी पड़ी है । के साथ खेलती खेलती यहाँ अा गई। बड़े झटके से मैं एक अजीब दुनिया में जा पहुँचा था। विचारों में पकड़ा, नहीं तो तुम भाग ही जातीं। तुम्हारी आँखों में एक नई हलचल मच गई। जो में पाया, कह दूं, चलो अभी तक वही चमकता सौन्दर्य और तेज मौजूद है। सीता का अभी छुड़ाता हूँ, किन्तु साहस नहीं हुआ। शिथिल लेकिन तुमने मुझे नहीं पहचाना । जब आदमी नहीं पह- होकर बबूल के पेड़ के सहारे खड़ा रहा। देखा, वह धीरेचानते तब तुम कैसे पहचानतीं ? मेरी उम्र के साथी मुझसे धीरे मुन्नी की पीठ पर दाहना हाथ घुमा रहा था । चंचल दूर रहते हैं । नहीं देखतीं, मेरे कपड़े से बदबू आ रही मुन्नी चुपचाप उसकी ओर देख रही थी। उसे भाग जाने है । यह तौलिया वही है जिससे तुम खेलती थीं। दाँतों का मौका था, किन्तु वह उसी को देखती रही। वह बालों को में दबाकर इस झोपड़ी से उस झोपड़ी में जाया करती थीं। उठाते हुए कहने लगा-छोटी बिल्ली, तुम्हारे बाल कितने अब तो फूस का वह घर भी नहीं रहा । महान् परिवर्तन हो कोमल हैं । श्रानो, तुम्हें चूम लूँ । इससे एक मीठी सुगन्ध गया है। मेरी देह की तुम एक-एक हड्डी गिन सकती हो। अाती है । तुम्हारे नये मालिक ने तुम्हें साबुन से धोया ज़रा तेज़ भागती तो मैं तुम्हें पकड़ भी न पाता । सूर्य है। लेकिन बिल्ली, तुमका अब मैं छोड़ दूंगा। मेरी देह की धूप मुझसे डरती थी जब मैं हल लेकर खेत में सुबह- पर मैल की कई तहें जमी हुई हैं । तुम मेरी देह के स्पर्श शाम एक कर देता था। जवान बैल जब भागते थे, मिट्टी से गन्दी हो जाअोगी। सम्भव है, तुम्हारा मालिक तुमसे के बड़े बड़े ढेलों को चूर करता हुआ मैं उन्हें घेर लाता अप्रसन्न हो जाय । मैं तुमको कितना प्यार करता हूँ बिल्ली ! था। पर अब .........कुछ रुक कर वह फिर कहने तुमने कभी यह विचार किया है कि तुम्हारे मालिक पैसे लगा.........मैं जानता हूँ, बिल्ली, यदि अभी तुमको से साबुन ख़रीदकर तुम्हें धोते हैं और तुम्हारी विमली छोड़ दूँ, तुम भाग जाअोगी। कुछ दिन पहले जब तुम जो तुम्हें पानी से सदा साफ़ रखती थी, पैसे की कमी से मेरी गोद में होती और सीता आकर तुम्हें खींचने लगता, औषध बिना मर गई। कितना अनर्थ है बिल्ली ! तुमने तुम मुझसे और लिपट-सी जातीं । आज तो तुम अपनी मेरी ऊख की खेती देखी थी। वहाँ तुम मचान पर खूब विवशता दिखा रही हो। सीता को जानती हो? वही खेलती रहती थीं। कभी कभी कूदकर तितली पकड़ती जिसकी थाली में तुम उसके साथ दही-भात खाती थीं। और कभी उड़तो हुई पत्तियों के पीछे दौड़ती थीं। वह वह कहाँ है ? तुम क्या जानों जब गाँव के लोग ही नहीं खेत मैंने लगान पर लिया था। ऊख की कमाई अच्छी जानते हैं ? ज़मींदारों के वे लड़के जो बचपन में उसके तरह न हो पाई थी, क्योंकि मैं स्वयं कमला बाबू का साथ पास के बागीचे में कबड्डी खेलते थे, कभी भूलकर हलवाहा था । जब कभी उनके काम से छुट्टी मिलती, भी उसकी खोज नहीं करते। वह पासवाले गाँव में एक अपनी ऊख पर दौड़ जाता था। किन्तु फिर भी मौके की बाबू के यहाँ पेट की रोटियों पर नौकर है। वहाँ से मैंने गुड़ाई और सिंचाई की कमी से ऊख पतली ही रह गई । कर्ज लिया था। रुपया न दे सका। वह गिरवी रख साल के अन्त में जब ऊख पक कर तैयार हुई, मैं पासवाले लिया गया है । वह अब बड़ा हो गया है। हाथ-पाँव स्टेशन पर उसे मिल में देने के लिए सिर के बल रातोंकाफ़ी मज़बूत हो चुके हैं। केवल पचीस रुपये का क़र्ज़ रात ढोने लगा। बैलगाड़ी मिलती थी, किन्तु भाड़ा कहाँ था। जोड़-जाड़ कर वह अब तीन सौ तक पहुँच गया है। से आता ! सात सात दिन तक ऊख यों ही पड़ी रहती, सीता कहता है- बाबू जी, मुझे बाज़ार और पास के सूखकर काँटा हो जाती, फिर भी तीन-चार थाना मन मिल पजावे पर काम करने दीजिए। मैं कुछ ही दिनों में सारा जाता। उस समय से उसी से मैं अपने परिवार का पालन ऋण अदा कर दूंगा। लेकिन मालिक नहीं सुनते । कितना करता था, किन्तु लगान बाकी का बाक़ी ही रहता । ज़मीअन्याय है ! छः साल के अन्दर सीता ने अपने पौरुष से दार ने छप्पर से लगान वसूल किया। बिल्ली याद है जब सैकड़ों रुपये की आमदनी उनको कराई, किन्तु इसका कोई छप्पर उजाड़ा जा रहा था और सीता की मा एक अोर रो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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