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एक सुन्दर कहानी
मुन्नी
लेखक, श्रीयुत 'श्रीहर'
एक बिल्ली पाली है- एकदम सफ़ेद बर्फ जैसी । उसकी इसी सुन्दरता की ओर मैं खिंच गया था, जब उसे दशहरे की छुट्टी में गाँव के पूरबी टोले की एक गली में देखा था। छोटे छोटे पैर, गठासा बदन और बड़ी बड़ी गोल गोल पैनी आँखें । वह बहुत दिन की हो गई थी, तो भी बिल्लियों के दो वर्ष के बच्चों के साथ बच्ची-सी ही लगती थी । सफ़ाई पर इतना ध्यान कि मेरी चारपाई पर यदि धुली हुई चादर बिछी होती तो पाँव तक नहीं रखती थी। एक दिन उसने रामू का सारा दूध पी डाला। इस पर रामू ने उग्र रूप प्रकट किया। मा जी ने कहा- रामू, वह भी तो बची ही है। बड़े भैया कहते हैं, मुन्नी को दही खिलाया करो। वह घ से सारे चूहे भगा देगी, और तुम प्लेग से बची रहोगी ।
Far और चप्पल ढूँढ़ने लगा। भाभी ने कहा - बाबू जी, वह तो आपकी रानी की तोशक बनी है । देखा, मुन्नी उसी पर पैर फैलाये सो रही है । चप्पल लेना पड़ा, क्योंकि उस दिन नदी नहाने का विचार था। मैं खूँटी के घाट पहुँचा । वहाँ स्त्रियों का मेला था। फिर कैंत के सामने गया। वहाँ भैंसें धोई जा रही थीं। फिर पुल के पास गया । वहाँ दिल नहीं लगा । मुड़कर देखा, मुन्नी रानी पीछे थीं। खेलते खेलते हम दूर निकल गये - साधु की कुटी के र आगे । एकदम निर्जन स्थान था । श्रास - पास छोटी छोटी झाड़ियाँ और छिछले गहरे नाले थे । स्थान मेरे लिए बड़ा सुन्दर था । मैंने उसे अपना घाट मान लिया । धोती-तौलिया एक जगह पर रख दी। मुन्नी ने तौलिये पर श्रासन जमा दिया । मुँह धोया, नदी के किनारे जाकर गीत गाया, फिर नदी में बैठकर स्नान किया। जब स्नान कर किनारे या तब देखा, मुन्नी वहाँ नहीं है। समझा, वह नटखट है, किसी ओर निकल गई होगी, श्रा जायगी। धोती बदली । मुन्नी को आवाज़ दी - दो, तीन, चार -पचीसों बार | पर मुन्नी नहीं आई । मन में सोचा, क्या घर चली गई । किन्तु मुझे छोड़कर कैसे जा सकती है ? बहुत घबराया ।
मुन्नी मुझसे कभी कभी नाराज़ हो जाती है, और इतना अधिक कि कुछ समय तक मेरे सामने भी नहीं आती । एक दिन मैं कुछ रुपये गिन रहा था । ज्यों ही मैं उन्हें हाथ में लेता, वह पंजा मारकर गिरा देती । दो-तीन बार तक तो मैं उसके इस नटखटपने पर हँसता रहा, किन्तु जब उसने मुझे न गिनने देना ही तय कर लिया, मैंने बनावटी क्रोध में उसकी ओर आँखें बदल कर देखा । वह दूर हटकर गुर्राने लगी, और जब मैं इतने पर भी उसे उसी तरह देखता रहा, वह वहाँ से धीरे धीरे चली गई। फिर मैंने उसे बार बार बुलाया, वह नहीं आई। उसने समझ लिया था, मैं उस पर क्रुद्ध हूँ । पर मैं मुन्नी को उस अवस्था में नहीं छोड़ सकता था । मुझे स्वयं उसके पास जाकर उसको मानना पड़ा ।
मनुष्य कितना प्रेमी होता है ! मिट्टी का एक करण भी उसे बाँध सकता है । छोटी-सी बिल्ली का क्या महत्त्व ? किन्तु मैं उसके लिए परेशान था । उसकी खोज में आगे बढ़ चला | झाड़ियाँ हिलाई, नाले झाँके, पर वह कहीं न मिली। बढ़ता ही गया। जहाँ नदी उत्तर को मुड़ती है, वहीं एक गहरे नाले एक किनारे एक नाटे कद का आदमी दिखाई दिया। उसका रंग काला, बदन खुला हुआ था। वह केवल एक मैली तौलिया लपेटे बैठा था । उसका मुँह नदी की ओर, सिर के बाल बड़े बड़े, दाढ़ी कुछ बढ़ी हुई, जैसे वह कोई नया साधु हो। उसी के हाथों में मेरी मुन्नी थी। मैं पास के एक बबूल की चोट में हो गया। वह मेरी रानी को छाती से दबाये नदी की लहरों को देख रहा था । एकाएक वह मुन्नी को देखकर कहने लगा-
छुट्टियों में घर आने पर मैं उसके लिए तमाशा हो जाता हूँ और वह मेरे लिए खिलवाड़। मैं किसी के दरवाज़े जाता हूँ तो वह इश्तिहार का काम करती है । एक दिन सवेरे आठ बजे धोती और तौलिया कन्धे पर
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मैं
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