Book Title: Saraswati 1937 01 to 06
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 609
________________ संख्या ६] . ... शनि की दशा बारहवाँ परिच्छेद पाता। कमरे के भीतर एक दीपक टिमटिमा कर जल रहा था। उसके क्षीण आलोक में बासन्ती का वेदना पिता का .वियोग से मुझाया हुअा मुख और भी मलिन जान पड़ता था। । रात्रि का दूसरा प्रहर व्यतीत हो चुका था। कृष्णपक्ष पास ही एक दूसरे कमरे में दो-तीन डाक्टरों के साथ की चतुर्दशी के प्रगाढ़ अन्धकार से चारों दिशायें समा- वृद्ध दीवान जी बैठे हुए थे । आज प्रातःकाल से ही वसु च्छादित थीं । आकाश में उदित होकर तारों का समूह महोदय को एक प्रकार का हैज़ा-सा हो गया था। पहले क्षीण आलोक का वितरण कर रहा था। सारे गाँव में तो उन्होंने किसी को कुछ बतलाया नहीं, किन्तु क्रमशः निस्तब्धता थी। समस्त दिन जो जन-कोलाहल मचा जब उसका प्रकोप बढ़ गया तब वे उसे छिपा न सके । रहता था, उस समय उसका नाम तक न था। कहीं कहीं लोगों ने जब देखा कि नाड़ी की गति क्रमशः मन्द होती दो-एक पथिक अवश्य उस प्रगाढ़ अन्धकार को चीरते जा रही है तब सन्तोष का तार दे दिया. परन्तु अभी हुए अपना रास्ता तय करते हुए चले जा रहे थे। तक वह पाया नहीं था। ____सड़क के किनारे पर ही राधामाधव बाबू का सुविशाल टेबिल पर घड़ी रक्खी हुई थी। उसमें एक बज भवन बना हुआ था। उसके एक कमरे से उतनी रात गया। घड़ी का शब्द सुनकर वृद्ध ने आँखें खोल दीं। को भी अालोक की रेखा दृष्टिगोचर हो रही थी। सारे पास ही बैठी हुई बासन्ती की ओर देखकर उन्होंने कहागाँव में नीरवता होने पर भी वसु महोदय की अट्टालिका क्या तुम अभी तक साई नहीं हो ? भाभी कहाँ हैं ? पर से लोगों की बातचीत की अस्पष्ट ध्वनि मिल रही थी। वृद्ध की ओर ज़रा-सा झुककर ताई जी ने कहाकदाचित् उस समय भी उनके यहाँ के लोग सेाये नहीं कहो, कैसी तबीअत है ? मैं यहीं बैठी तो हूँ। थे। एकाएक देखने पर यह कोई भी समझ लेता कि वसु महोदय ने क्षीण कण्ठ से कहा-आप जाकर इन सभी लोगों के मुख पर एक प्रकार की उत्कण्ठा का विश्राम कीजिए, मेरी तबीअत अब कुछ अच्छी मालूम चिह्न वर्तमान है, मानों सभी लोग बहुत ही व्यस्त हैं। पड़ रही है। बाद को उन्होंने बहू की अोर दृष्टि फेरी और मकान की दूसरी मंज़िल के ऊपर एक बैठक बनी हुई कहने लगे-बिटिया, सुनो, तुमसे मुझे कुछ बातें कहनी थी। उसी बैठक में एक पलँग पड़ा था। वसु महोदय हैं । अधीर न होना । संसार का यह नियम ही है। इससे उसी पर लेटे हुए थे। बुढ़ापे के कारण उनका शरीर काई बच नहीं सकता। एक न एक दिन सभी को जाना बहुत ही शिथिल हो गया था। रोग के कारण मुँह पीला पड़ेगा। यह क्या, रोती हो बिटिया ! छिः ! रोश्रो न । मैं पड़ गया था, उसके ऊपर मृत्यु का चिह्न स्पष्ट रूप से जो कहता हूँ वह सुनो। बेटी, मैं ही तुम्हें इस दुःख में उदित हो पाया था। सिरहाने के पास बासन्ती पंखा ले आया हूँ। उस समय मेरे हृदय में यह प्राशा थी कि लिये हुए बैठी थी । वृद्ध के मुख पर दृष्टि स्थिर रख कर तुम्हें सुखी कर सकूँगा। किन्तु तुम्हारी सुखमय अवस्था वह नीरव भाव से हवा कर रही थी। उसके मुख पर देखना मेरे भाग्य में नहीं था। आज मैं जा रहा हूँ। निराशा की रेखा विराजमान थी। बीच बीच में अञ्चल बेटी, मेरे हृदय को किसी प्रकार का भी क्लेश या दुःख के छोर से वह आँसू पोंछ लेती थी, परन्तु इस बात का नहीं है। केवल तुम्हें ही मैं अकेली छोड़े जा रहा हूँ, ध्यान रखती थी कि दूसरा कोई उसे आँसू पांछते देख तुम्हें देखनेवाला कोई नहीं रह गया, मुझे केवल यहीन सके । पास ही ताई जी भी बैठी थीं। वे वसु महोदय वे और कुछ न कह सके। बासन्ती के दोनों ही कपोलों के शरीर पर हाथ फेर रही थीं। अपने दोनों ही अत्यन्त पर से अाँसुओं की धारा बह चली। वसु महोदय ने ज़राशिथिल एवं रक्त-मांस से हीन हाथों को वक्ष पर रखकर सा अपने आपको सँभाल कर कहा-बेटी, मेरे जीवन आँखें बन्द किये हुए वृद्ध सो रहे थे। बीच-बीच में काल में जो लोग मेरे अाश्रय में हैं, मेरी मृत्यु के बाद यन्त्रणा की अधिकता के कारण वे कराहने का प्रयत्न वे श्राश्रयहीन न होने पावें । उनके ऊपर तुम्हारी दृष्टि करते, किन्तु कराहने का भी शब्द स्पष्ट रूप से न निकल रहनी चाहिए। बेटी, देखो, तुम किसी दिन अभिमान में फा. १० . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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