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संख्या ६]
उसने सब चीजें पास पड़ी हुई तिपाई पर मेरे सम्मुख रख दीं। मैंने सबको गौर से देखा । चिकित्सा ठीक रास्ते पर हो रही थी ।
देते भी न बनता था। मैं चुपके से वहाँ से खिसक गया और रोगी के उपचार में जा लगा। रोगी की अवस्था क्षण
प्रतिक्षण बिगड़ती जा रही थी। कोई एक घंटे के अनन्तर
"अभी यही दवाइयाँ दिये जाओ ।" मैंने कहा और स्थानीय डाक्टर महोदय भी आ गये। उनसे सलाह करके बाहर निकल आया । जगतराम मेरे पीछे था । हमने एक-आध इंजेक्शन भी दे दिया । परन्तु फल कुछ न “बचा लोगे न ?" जगतराम ने भरे हुए गले से निकला । हमारी सब की दौड़-धूप के बाबजूद भी उसी रात पूछा । इतनी व्यथा थी, इतनी याचना थी उसके स्वर में बालक ने उस बुढ़िया - अपनी नानी की गोद में सदा कि मेरे जैसे डाक्टर का कठोर हृदय भी विकल हो उठा । के लिए आँखें मूँद लीं । ऐसी करुणा - जनक और असामयिक मृत्यु को पछाड़ने के लिए तो डाक्टरों के पास संजीवनी बूटी जैसी कोई वस्तु अवश्य होनी चाहिए। मुझे अपने सीमित ज्ञान पर क्रोध तो बहुत आाया, पर कर क्या सकता था। अपने भावों को छिपाकर मैंने जवाब दिया- "हाँ यदि आज की रात निकल गई तो ।”
जगतराम इस हृदय विदारक दृश्य को देखने का साहस नहीं पकड़ सका था, इसलिए पिछले कोई बीस मिनिट से बरामदे में आकर बैठा सुत्रों द्वारा अपनी बढ़ी हुई दाढ़ी को भिगो रहा था । मुझे बाहर निकलते देखकर वह उठ बैठा और हिचकी लेकर बोला - "चल दिया ?" "हाँ ।"
बुढ़िया हमसे कुछ ही अन्तर पर थी । मेरी आवाज़ सुनकर वह उठकर तीर की तरह खड़ी हो गई । कम्बल को उतारकर कुर्सी पर फेंक दिया और मेरी ओर बढ़ती हुई गरजी - "क्यों छिपा रहे हो ? साफ़ साफ़ क्यों नहीं बताते ! यह क्यों नहीं कहते कि आज की रात बीतने से पहले पहले वह पार हो जायगा ।" यह कहकर वह ज़ोर से रो पड़ी। मैंने कुछ न कहा । ऐसी अवस्था में तो श्राश्वासन
कहानी का अन्त
आकर्षणमय विश्व तुम्हारा ! मज्जित इस छवि के समुद्र मिलता नहीं
में किनारा |
गीत
लेखक, श्रीयुत कुँवर चन्द्रप्रकाशसिंह
जलद - वेश्म सुरधनु - आरंजित ऊपर नील- व्योम शशि-शोभित, क्रीड़ित सतत अनन्त अङ्क में किरण-कान्त
कल तारा ।
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जगतराम ने कोई श्रधा क्षण काले बादलों में से झाँकते हुए दो चार क्षीण ज्योतिवाले तारों की ओर शून्य दृष्टि से देखा । फिर उखड़े हुए स्वर में एक दीर्घ निश्वास छोड़कर बोला - " तो यह है मेरी प्रेम-कहानी का अन्त ।”
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हाँ अन्त ! पर उस कहानी का आरम्भ क्या था, कथानक क्या था, यह उस समय उससे कौन पूछ सकता था ।
ऊर्मिल जलधि-केश उर्वी-उर लहराता तम-वास असित-तर, स्वन-विभोर निशीथ - शयन पर, वह सरि-धारा - हारा ।
मद-मन्द-मूर्च्छित कलि के दृग, बहता मलय मन्द गन्ध-स्रुग, ए रूप, चिर अभिनव तेरी रूपमयी यह कारा ।
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