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हमारी राष्ट्र-भाषा कैसी हो
लेखक, श्रीयुत सन्तराम, बी० ए०
'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' के सम्बन्ध में हम 'सरस्वती' के गत अंकों में दो लेख छाप चुके हैं। यह उसी विषय का तीसरा लेख है और इस लेख में विद्वान् लेखक ने अपने दृष्टिकोण को अधिक स्पष्ट रूप में उपस्थित किया है। आशा है, हिन्दी के अन्य विद्वान् भी इस विषय के विवेचन में प्रवृत्त होंगे,
__ क्योंकि यह विषय उपेक्षणीय नहीं है।
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EENNEPen ड़े दिन से हिन्दुना में एक “हिन्दी-हिन्दुस्तानी शब्द का मैंने यहाँ इरादतन a ऐसी मंडली उत्पन्न होगई है जो प्रयोग किया है । .........'इन बरसों के दरम्यान उनकी
हिन्दी को राष्ट-भाषा बनाने के शैली में कितना अधिक अन्तर हो गया है। असल में यह
2G बहाने उसमें अरबी-फ़ारसी के मोटे- दृष्टि-परिवर्तन खुद-ब-खुद तभी से व्यक्त होने लगा ARTISRAE मोटे गला-घोंटू शब्द ढूंसने की था। ........वे समाज के मौजूदा तअस्सुबों पर कटाक्ष
चेष्टा कर रही है। जहाँ तक मुझे तो करते थे, पर उन पर कभी सीधा हमला नहीं ज्ञात है, इस मंडली के नेता श्रीयुत काका कालेलकर और करते थे।" इसके परम सहायक श्री हरिभाऊ उपाध्याय और श्री श्रीयुत हरिभाऊ उपाध्याय ने श्री जवाहरलाल जी वियोगी हरि जी हैं। काका जी के हिन्दी लेख देखने का की अँगरेज़ी में लिखी आत्म-कथा का हिन्दी में अनुवाद तो मुझे पहले कभी सुअवसर नहीं मिला, परन्तु वियोगी किया है। हिन्दी पुस्तक का नाम 'मेरी कहानी' है। हरि जी, 'हरिजन-सेवक' के संपादक बनकर इस मंडली में उसके आवरण पृष्ठ पर हमें लिखा मिलता हैसम्मिलित होने के पूर्व, जैसी सुन्दर और सरस हिन्दी “यह तो समय-समय पर मेरे अपने मन में उठनेवाले लिखते थे, उसे पढ़कर मन अानन्द-विभोर हो जाता था। ख़यालात और जज़बात का और बाहरी वाक्यात का उनकी पहली हिन्दी और उनकी आज-कल की हिन्दी का उन पर किस तरह और क्या असर पड़ा, इसका दिग्दर्शन एक-एक नमूना मैं यहाँ देता हूँ। इससे दोनों के अन्तर मात्र है।" का पता लग जायगा।
पिछले दिनों काका कालेलकर लाहौर आये थे । तब वियोगी हरि जी की पहले की भाषा--- "ब्रज-भाषा उनसे मिलने का मुझे अवसर मिला था। वे भारत में के साहित्य-सूर्य सूरदास के नाम से हम सभी परिचित हैं। एक राष्ट्र-भाषा और एक राष्ट्र-लिपि के प्रचार के उद्देश छोटे से रुनकता गाँव के इस व्रजवासी सन्त ने हिन्दी- से ही दौरा कर रहे थे। लाहौर में उन्होंने अनेक विद्वानों भाषियों के घर-घर में श्रद्धा-भक्तिपूर्ण एक अजर-अमर से इस विषय पर बात-चीत की थी। परन्तु जहाँ तक मुझे स्थान बना लिया है। महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य के इस ज्ञात है वे, कम-से-कम पंजाब के सम्बन्ध में, किसी निश्चय परम कृपा-पात्र ने 'अष्टछाप' का सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर पर नहीं पहुँच सके थे। इसके बाद 'राष्ट्र-भाषा हिन्दी का श्रीकृष्ण-भक्ति को हमारे हृदय में सदा के लिए बसा दिया प्रचार, किस लिए ?' शीर्षक उनका एक लेख मुझे कलहै । सूर-सागर के रत्न महोदधि के चौदह रत्नों से कहीं कत्ता के साप्ताहिक 'विश्वमित्र' में पढ़ने को मिला । उसके अधिक कान्तिमय और बहुमूल्य हैं। सूर के पद-रत्नों की पाठ से इस राष्ट्र-भाषा-प्रचारक-मंडली के विचारों का और श्राभा ही कुछ और है। सूर की सूक्ति-मणियों से भाषा- जिस प्रकार की वे हिन्दी चाहते हैं उसका बहुत कुछ पता साहित्य अलंकृत होकर विश्वसाहित्य में सदा गौरव लग गया। काका जी महाराष्ट्र हैं । संस्कृत के पण्डित, स्थानीय रहेगा, इसमें सन्देह नहीं।"
अँगरेज़ी के विद्वान् और मराठी एवं गुजराती के सुयोग्य 'हरिजन-सेवक' की हिन्दी का नमूना
लेखक हैं। उर्दू श्राप नहीं पढ़ सकते । परन्तु आपके
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