Book Title: Saraswati 1937 01 to 06
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 569
________________ संख्या ६] ली हावर है; इसी पर लेटकर लोगं धूप-स्नान करते हैं। धूप और बाकी थे । तब तक ला हावर की शोभा. देखते रहे। थोड़ी जल-स्नान का प्रबन्ध देखकर हृदय बड़ा प्रसन्न हुआ। देर में भूमि-खण्ड और जल-राशि घूमती-सी प्रतीत होने स्वास्थ्य के लिए समुद्र का जल-स्नान और वायु-सेवन से लगी। तट पर बड़े-बड़े मकान चक्र के समान घूमने बढ़कर और कोई प्राकृतिक वस्तु नहीं है। राजयक्ष्मा के लगे। फिर जिस भू-खण्ड के किनारे से होकर ला हावर रोगियों तक के लिए यदि कोई वस्तु अत्यन्त हितकर है तो पहुँचे थे उसी के किनारे से गुज़रने लगे। देखते ही देखते समुद्रतट का सेवन । वह भू-खण्ड भी अदृश्य हो गया। केवल इंग्लिश चैनल टैक्सीवाले से बिदाई ले हम लोग अपने जहाज़ में की उत्तुंग लहरें ही समुद्र को लपेटे दिखलाई पड़ श्रा धमके। १५-२० मिनट अभी जहाज़ खुलने में और रही थीं। दूरागत सङ्गीत लेखक, श्रीयुत रामदुलारे गुप्त दूर उस गहन शून्य से कौन रश्मि-सा आता रेखाकार; चन्द्रिका-स्नात व्योम-सा सौम्य, स्नेह-सा बरसाता रसधार ? अलभ-जीक्न के गत सुख-चित्र मिटे-से, पुनः बनाता कौन, जगाता सुप्त मुकुल मृदु-भार उनींदे नयन शान्ति-से मौन ? हृदय का प्रणयोत्पन्न अभाव घना हो उठता रह रह कर न जाने किस मधु-मदिरा में और मैं चल देता बहकर । गूढ़ छायापथ के मृदु-भाव चमक जाते [थकर मिलकर, पवन के मृदुल स्पर्श से सिहर कुसुम ज्यों मुंद जाते खिलकर ! आज विस्मृति में जुगनू-से दमककर जगकर रह जाते वायु में टूटे तारों-से शुद्ध, सित, अस्थिर दिखलाते । स्वर्ग-रश्मियों के निर्माता, सृष्टा, दूरागत सङ्गीत ! हृदय-देश में अपर-लोक के भर दो संशय-स्वप्न पुनीत ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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