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संख्या ६]
कहानी का अन्त
अवकाश ही मिलता था और न इस विषय को लेकर ठीक कर दें तो मैं अपना सारा स्वर्ण अापके चरणों में उसके सम्मुख जाने का साहस ही होता था। इसलिए दिन ला रक्खूगा। क्या आप अभी उसे देखने के लिए चल पर दिन बीतते गये और उनके साथ ही कुतूहल भी मन्द सकेंगे ?" पड़ता गया। यहाँ तक कि मैंने उससे मिलने का निश्चय "क्यों नहीं।" ही लगभग छोड़ दिया। किन्तु विधि के ढंग निराले होते हैं । मेरे अनावकाश तथा भय से ऊपर उठकर उसने . मैं उसके संग हो लिया। मेरा मोटर.अभी बाहर ही एक दिन सहसा उसे फिर मेरे सम्मुख ला खड़ा किया। खड़ा था। मोटर ने दस ही मिनिट में हमें उसकी बताई गली ___ मैं अभी अस्पताल से लौटा था, थककर चूर हो के बाहर ले जाकर खड़ा कर दिया। वह एक पतली-सी रहा था, इसलिए आराम की अाशा में अपने बैठने- टेढ़ी-मेढ़ी गली थी। उसी के मध्य में छोटा-सा तथा बहुत वाले कमरे के एक कोने में श्राराम-कुर्सी पर आँखें मूंद पुराना इधर-उधर के मकानों में फंसा और शायद उनके कर जा लेटा। मुझे यों पड़े पड़े अभी कठिनता से दस सहारे ही खड़ा एक मकान था। मुझे लेकर वह उसी में मिनिट ही गुज़रे थे कि मेरी घंटी ज़ोर से बज उठी और घुस गया। मकान में कूड़े-कर्कट से भरा एक छोटा-सा इसके साथ ही नौकर ने कमरे में प्रवेश किया।
आँगन था। उसके एक कोने में धूल से लथपथ दो-तीन "क्या बात है ?” मैने ज़रा खीझकर पूछा। बालक खेल रहे थे और उनसे कुछ दूरी पर बैठी एक
"एक मनुष्य आपसे मिलना चाहता है किसी रोगी अधेड़ अवस्था की मैली-कुचैली स्त्री उन पर खीझ रही के विषय में ।”
थी। आँगन के अन्त पर एक ऊबड़-खाबड़-सा जीना था। इच्छा तो बहुत हुई कि उसे जवाब दे दूँ । पर डाक्टर उसके द्वारा हम मकान की पहली छत पर जा पहुँचे । इसी को यह अधिकार कहाँ ? क्या जाने नवागन्तुक कौन-सी छत की दाहनी ओर रोगी का कमरा था। कमरे में घुसते दुःख-गाथा लेकर आया है । मेरी ज़रा-सी देर भी अनर्थ ही मैं दंग रह गया । वह इतना साफ़-सुथरा था कि अाँगन ढा सकती है। इसलिए नौकर को उसे अन्दर लाने का तथा जीने से उलझती आ रही आँखें उसे देखकर सचमुच आदेश देकर मैं उसी क्षण उठ खड़ा हुआ और रोगी चौंधिया गई । कमरे के मध्य में दूध की भाँति एक स्वच्छ देखनेवाले कमरे की ओर लपका। इतने में नौकर भी बिछौना बिछा था और उस पर पड़ा था मुरझाये उसे लेकर आ गया। अरे यह तो वही कंचन-प्रेमी था! कमल के फूल-सा एक आठ वर्षीय अबोध बालक । उसके अाज उसकी दाढ़ी और भी अधिक बढ़ी हुई थी, पर सिर चेहरे पर करुणा झलक रही थी, नेत्रों के कोनों से पर एक मैली-सी पगड़ी रक्खे था, पाँव में एक टूटा-सा वेदना झांक रही थी, पर होंठों पर अल्पस्फुटित जूता भी था, नेत्रों में चंचलता के स्थान पर घबराहट मुस्कराहट थी। थी, ललाट की रेखायें और भी गहरी हो उठी थीं। . चारपाई के निकट कुर्सी पर कोई लगभग साठ वर्ष
"तुम ?” मेरे मुख से अनायास निकल गया। की एक पतली-सी बूढ़ी औरत बैठी थी। उसकी साड़ी ___ "जी। क्या आप ही डाक्टर अविनाश राय हैं ?" हिम की भाँति श्वेत थी और रंग संगमरमर की तरह । उसने ज़रा आश्चर्य से पूछा। वह भी मुझे पहचान उसका चेहरा झुर्रियों से भरा था, पर आँखों में एक अद्भुत चुका था।
ज्योति थी, लावण्य था। ऐसा प्रतीत होता था जैसे किसी "हाँ, कहिए क्या प्राज्ञा है ?"
· ने रातों-रात एक नवेली अप्सरा से छीनकर उन्हें, पुरानी "डाक्टर साहब, एक बड़ी आशा लेकर आपकी सेवा आँखों के बदले, उसके चेहरे पर जड़ दिया हो। मुझे में आया हूँ ।”
देखकर वह कुर्सी मेरे लिए छोड़ उठकर चारपाई पर जा "क्या कोई बीमार है ?"
बैठी । कुर्सी पर बैठते हुए मैंने बालक की कलाई हाथ में "जी । मेरा बच्चा।" उसने मेरी अोर सहानुभूत्याकांक्षी ली और जगतराम से पूछा---"इसे क्या कष्ट है ?" मुख से देखा और ज़रा घबरा कर बोला-"श्राप यदि उसे "डाक्टर साहब, क्या बताऊँ ?" उसने एक दीर्घ
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