Book Title: Saraswati 1937 01 to 06
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 556
________________ ५४२ और तुम एक साथ बहुत बड़े सरकारी अफ़सर के दामाद बन जाओगे ! विनोद - क्या यह सब सच है ? सरस्वती चारु० - हाँ, क्यों तुम्हें ख़ुशी होती है न ? विनोद – छिः छिः सम्पादक जी... ( कुछ सोच कर ) अच्छा देखा जायगा । अभी सुषमा और रेणुका टेनिस खेलने नहीं आई ? 1 चारु० - आती होंगी। मगर यह तो कहो कि तुम्हारी इस सम्बन्ध में क्या राय है । मैं शायद समझ लूँ तो तुम्हारी सहायता कर सकूँगा । साथ ही यह तो मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि तुम्हें कल्पना की लगाम खींचकर अनुभव के मार्ग पर चलना होगा । विनोद- इसका क्या अर्थ है ? चारु०--मेरा संकेत सुषमा से है । (कुछ सोचकर ) शायद रेणुका से भी हो । विनोद - ( गम्भीर होकर ) यह किसी की सम्मति देने-नदेने का सवाल नहीं है । चारु० - ताल्लुकेदार साहब तो ऐसा नहीं समझते। उन्हें विवाह-सम्बन्ध करते समय कुल-मर्यादा का बड़ा ख़याल है । फिर प्रफुल्ल भी तो ख़ूब पढ़ी-लिखी है । विनोद - (एक ओर जाकर कुर्सी पर बैठता है) सम्पादक जी, आपसे साफ़ साफ़ बातें कर लेने में कोई हर्ज नहीं । मैं अपने लिए सुषमा को चुन चुका हूँ । (आनन्दमोहन का प्रवेश । आते आते वे विनोद के अन्तिम शब्द सुन लेते हैं ।) आनन्द० - मैंने यह क्या सुना विनोद ? 1 ( गद्दी पर तकिये के सहारे बैठ जाते हैं) [विनोद लज्जा से सिर नीचा कर लेता है ] क्यों सम्पादक जी, मैंने क्या यह ठीक सुना है कि विनोद ने सुषमा को अपने लिए चुन लिया है ? चारु० - (विनोद की ओर देखते हुए) मैं समझता हूँ कि वधू के चुनाव में वर की सम्मति उतनी ही श्रावश्यक है, जितनी वर के पिता तथा अन्य परिवारवालों की । (इसी समय विनोद उठकर जाना चाहता है) - ( हाथ के संकेत से रोकते हुए ) ठहरो विनोद, अपने जीवन में मैं पहली बार इस प्रकार का अनुभव कर रहा हूँ । तुम मेरे पुत्र हो, परन्तु दुर्भाग्य से श्रानन्द०- ( Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३८ मातृहीन हो, अन्यथा मैं तुम्हारे विचार दूसरी तरह समझ सकता था । इसी लिए मैं...... ( .. ( कुछ रुककर ) हूँ... जो कुछ हो । मैं तुम्हारे मन की बात जानना चाहता हूँ । 1 विनोद - ( स्पष्टता और गम्भीरता से ) शायद अभी-अभी आप मालूम कर चुके हैं । । श्रानन्द० - यही न ! यही न ! वे दोनों नित्य यहाँ टेनिस खेलने आती हैं। मैं निरन्तर इस व्यसन को सशंक दृष्टि से देखता था । परन्तु आज तो मैं देखता हूँ, यह निर्लज्जता मेरे वंश की लज्जा से झूमना चाहती है । विनोद, रेणुका हो या सुषमा । तुम्हारे साथ दोनों पढ़ी हैं । परन्तु क्या शिक्षालयों के आदर्श तुम्हें इसी मार्ग पर ले जाना चाहते हैं ? रेणुका हो या सुषमा, इनकी कुल-मर्यादा क्या है ? अब से चारछः वर्ष पूर्व वे कहाँ थीं, यह कौन जानता है ? सुषमा एक वृद्ध नौकर और विधवा माता के साथ रहती है। हो सकता है, कुछ सम्पत्ति उसकी माता के पास और रेणुका, वह एक वृद्धा दासी के साथ उस बँगले में रहती है । वही बुड्ढा नौकर उसके यहाँ भी आता-जाता है। कौन जानता है कि रेणुका की कुल - मर्यादा क्या है ? तुम क्या इतना भी नहीं सोच सकते कि मेरे उच्च वंश के लिए किस प्रकार का सम्बन्धावश्यक है ? I विनोद - बाबू जी, प्रेम की मर्यादा तो सीमित नहीं है । आनन्द ० -- (आवेश में ) प्रेम-प्रेम- प्रेम ! तुम लोगों का हृदय प्रेम का स्रोत है या निर्लज्ज वासना का ? चकाचौंध का नाम प्रेम है या समझदारी का ? विनोद - प्रेम न चकाचौंध है, न समझदारी, वह अनुभूति है । वह एक श्राश्रय है - हृदय वहीं ठहरता है । श्रानन्द० - अफ़सोस ! मैंने तुमसे बातचीत ही क्यों की ? -- मैं लड़कों की नासमझी में क्यों पड़ गया ? (कुछ ठहर कर ) तो तुम्हारा निश्चय क्या यही है ? यदि यही तो तुम्हें उसे तुरन्त ही भूल जाना पड़ेगा । (इसी समय रेणुका कमरे के दरवाज़े तक कर ठहर जाती है । वह टेनिस खेलने की तैयारी से आई है। बाहर से ही श्रानन्दमोहन की आवाज़ सुनकर बैठक से www.umaragyanbhandar.com

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