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कब मिलेंगे! लेखक, श्रीयुत नरेन्द्र
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगेआज से दो प्रेम-योगी अब वियोगी ही रहेंगे!
___आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर धीर बाँधू, विश्व-पथ है, हम पथिक, पर कौन जाना, कहाँ जाना ? किन्तु कैसे व्यथे की आशा लिये यह योग साधू ? तीर भी धारा-सदृश गतिवान् , थिरता का बहाना ! जानता हूँ अब न हम-तुम मिल सकेंगे!
अन्त ? गति ही सत्य है, कैसे मिलेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे !
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
आयगा मधु-मास फिर भी, आयगी श्यामल घटा घिर, यदि मुझे उस पार के भी मिलन का विश्वास होता, आँख भर कर देख लो अब, मैं न आऊँगा कभी फिर, सत्य कहता हूँ न मैं असहाय या निरुपाय होता,
प्राण तन से बिछुड़कर कैसे मिलेंगे! . व्यर्थ हैं वे स्वप्न- 'हम फिर भी मिलेंगे !' आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
अब न रोना, व्यर्थ होगा हर घड़ी आँसू बहाना, आज से अपने वियोगी हृदय को हँसना-सिखाना
अब न हँसने के लिए हम तुम मिलेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे !
आज तक किसका हुआ सच स्वप्न, जिसने स्वप्न देखा? कल्पना के मृदुल कर से मिटी किसकी भाग्य-रेखा ?
क्या कभी सम्भव कि हम फिर भी मिलेंगे? आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
आज से हम तुम गिनेंगे एक ही नभ के सितारे, दूर होंगे पर सदा को जो नदी के दो किनारे-
सिन्धु-तट पर भी न जो दो मिल सकेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे !
आह, अन्तिम रात वह ! बैठी रहीं तुम पास मेरेशीश कन्धे पर धरे घन कुन्तलों से गात घेरे! .
क्षीण स्वर में कहा था-'अब कब मिलेंगे ?' आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
तट नदी के, भग्न उर के दो विभागों के सदृश हैं, 'कब मिलेंगे? पूछता मैं विश्व से जब विरह-कातर, चीर जिनको विश्व की गति बह रही है, वे विवश हैं, 'कब मिलेंगे?' गूंजते प्रतिध्वनि-निनादित व्योम-सागर,
एक अथ-इति पर न पथ में मिल सकेंगे! 'कब मिलेंगे?' प्रश्न, उत्तर 'कब मिलेंगे ?' आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे।
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