Book Title: Saraswati 1937 01 to 06
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 560
________________ १६३६ का देशी कम्पनी कानून लेखक, श्रीयुत प्रोफेसर प्रेमचन्द मलहोत्र का चलाने तथा उनकी उन्नति करने के लिए पूँजी का संचय होना ति श्रावश्यक है। अधिक परिमाण की उत्पत्ति के लिए बड़ी पूँजी दरकार होती है । पूँजी कम्पनियों द्वारा मुगमता से एकत्र हो जाती है । श्राज-कल प्रायः मिश्रित पूँजीवाली कम्पनियों द्वारा ही उद्योगों तथा व्यवसायों के लिए पूँजी मिलती है । ये कम्पनियाँ परिमित ज़िम्मेदारी के सिद्धान्त पर स्थापित होती हैं। यदि इन कम्पनियों का प्रबन्ध स्वार्थियों और छलियों के हाथों में श्रा जाय तो लोगों का विश्वास कम्पनियों पर से हट जाय और तब धनोत्पत्ति तथा व्यवसाय के लिए पूँजी का एकत्र करना बहुत कठिन हो जाय और देश की बहुत हानि हो । भारत में मिश्रित पूँजीवाले बैंकों का श्रारम्भ १८६५ से हुआ है। इसी वर्ष इलाहाबाद बैंक स्थापित हुआ था । १८९४ में पंजाब नेशनल बैंक और १९०१ में पीपल्स बैंक खुले । पर मिश्रित पूँजीवाले बैंकों की वृद्धि १९०६ से ही हुई है । इसी समय स्वदेशी आन्दोलन बड़े ज़ोरों पर था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि बहुत से स्वदेशी बैंक भी खुलते । १९१३-१४ में ५५२ मिश्रित पूँजीवाले बैंक थे, जिनकी प्राप्त पूँजी ७,९१,५१, ४२० रुपया थी । १९१३ में बहुत-से बैंक टूट गये, क्योंकि कई बैंक शुरू से ही स्थिर थे। कई बैंकों के तो नाम बड़े और दर्शन थोड़े थे। जैसे कि सोलर बैंक ग्राफ़ लाहौर की - प्रामाणित पूँजी तो एक करोड़ रुपया थी और प्राप्त पूँजी केवल ८ हज़ार रुपया ! ऐसे अनेक बैंक थे। कई बैंकों ने अपने पास काफ़ी नकद रुपया न रखकर बहुत सा धन्धों या उद्योगों में लगा दिया था, जहाँ से ज़रूरत पर रुपया सुगमता से समेटा नहीं जा सकता था। इसके अतिरिक्त बैंकों का प्रबन्ध ऐसे पुरुषों के हाथ में था जो बैंक - कार्य से अनभिज्ञ थे। कई बैंकों ने बहुत-सा रुपया काल्पनिक व्यक्तियों के नाम पर उधार दे दिया था। कई बैंकों ने अपने हिस्सेदारों को लाभ-भाग मूलधन में से बाँटा । इन सब अनुचित व्यवहारों से बैंकों का टूटना स्वाभाविक था । १९१३ के कम्पनी कानून में कुछ ऐसे दोष थे जिनसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat लाभ उठाकर बहुत-सी बेपेंदी की कम्पनियाँ खुल जाती थीं। इससे केवल लोगों के धन की ही हानि नहीं हुई, बरन लोग कम्पनियों में रुपया लगाने से संकोच करने लगे । तब सरकार ने यह अपना कर्तव्य समझा कि धन लगानेवालों के हितों की रक्षा की जाय । श्रतएव १९३६ के नये कम्पनी कानून में निम्नलिखित बातें रक्खी गई हैं(१) छली और जाली कम्पनियों पर प्रतिबन्ध लगाना । (२) कम्पनियों के सूचना-पत्र में विस्तार पूर्वक श्रावश्यक विज्ञापन का देना । - (२) कम्पनियों के हिस्सेदारों की आय सम्बन्धी अवस्था का पूरे तौर पर परिचय कराना । (४) हिस्सेदारों के अधिकारों का बढ़ाना । (५) कम्पनियों के प्रबन्ध-सम्बन्धी प्रतिनिधियों के बारे में कानून को बदलना । (६) बैंकिंग की कम्पनियों के बारे में क़ानून का संशोधन करना । १९२९ में सरकार ने भारतीय बैंकों के व्यवसाय की जाँच करने के लिए प्रांतीय और केन्द्रीय बैंकिंग कमिटियाँ बिठाई। बैंकों का जो नया कानून बनाया गया है वह इसी केन्द्रीय बैंकिंग कमिटी की सिफ़ारिशों के आधार पर बनाया गया है । इस क़ानून के अनुसार बैंकिंग कम्पनी उसको ठहराया है जिसका मुख्य धंधा चालू जमा अथवा और तरह रुपया लेना है और रुपये की वापसी चेक और हुंडी के द्वारा देना है। इसके अतिरिक्त बैंकिंग- कम्पनी निम्नलिखित कार्य भी कर सकती है (१) ज़मानत या बिना ज़मानत के रुपया उधार देना । (२) हुंडी -पुर्जा, प्रोमिसरी नोट, सिक्युरिटीज़, जहाज़ी माल का हुंडी-पर्चा अथवा प्रतिज्ञा पत्र का ख़रीदना, बेचना अथवा बट्टा काटना । (३) विदेशी विनिमय का ख़रीदना । (४) उधार के बीजक का देना अथवा स्वीकार करना । (५) बीमा करना । (६) चाँदी या सोने का बेचना अथवा खरीदना । ५४६ · www.umaragyanbhandar.com

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