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संख्या ४ ]
इससे जो बन पड़ा बन्धुवर, प्रेम - समेत
परोसा
भोग लगावोगे इसका यत्र मुको यही भरोसा है ||
सम्पादकीय नोट
दूसरे दिन पहली बड़हार को यह कविता सुनाई थी— भक्त समर्पित करण भी खाकर सागपात खाकर निःस्वाद जन-वत्सल भगवान कृष्ण ने पाया था अतिशय श्रह्लाद । क्या आश्चर्य आपने जो यह रूखा-सूखा खाया अन्न भक्ति- प्रिय वस भक्ति देखते नहीं देखते अन्न- कदन्न ॥ ( २ )
प्रेम सहित कर लिया आपने नीरस भोजन का स्वीकार किस प्रकार निज भाग्य सराहूँ महा अधम मैं महा गवाँर । धन्य आपकी कृपा आपका यह उन्नत उदार व्यवहार मैं कृतकृत्य हो गया मेरा किया अपने अति उपकार ।।
तीसरे दिन दूसरी बड़हार के समय यह कविता सुनाई थी
( १ ) महाराज मुझ पर जो इतनी दया आपने दिखलाई उससे व्यक्त ही की है मनोमहत्ता हे भाई । महाजनों की रीति यही है करते छोटों का उपकार चने चाव कर भी कहते हैं --हा, किया बड़ा सत्कार || ( २ )
पूर्व जन्म के निज सुकृतों का फल मैंने पाया भरपूर पावन किया आपने मुझको दुरित कर दिये सारे दूर | योग्य आपके मुझसे प्रस्तुत नहीं हो सका भोजन-पान क्षमा कीजिएगा सब त्रुटियाँ हे दयालु हे क्षमानिधान ||
चौथे दिन विदाई के दिन मंडप के नीचे यह कविता सुनाई थी—
( १ ) आप सभी विध पूर्ण काम हैं विभव-धाम हैं आप यथार्थ किसी वस्तु की चाह नहीं, सब प्राप्त कान्त कमनीय पदार्थ । क्या दूँ मैं फिर भला आपको दीन विभूति-विहीन निका सुलभ एक ही वस्तु मुझे है ये दोनों कर जोड़ प्रणाम ||
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( २ )
दीपदान से क्या दिनकर की प्रभा पूर्णता पाती है। श्राचमनी भर जल से सुरसरि-धारा क्या बढ़ जाती है। भक्त तथापि यही करते हैं निज अनुरक्ति दिखाते हैं इष्टदेव की पूजा करके उस पर फूल चढ़ाते हैं |
३ )
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(
देव अपने को, सेवक मुझे समझ शर्मा महराज, अपनाइए मुझे जैसे हो हाथ आपके मेरी लाज । सुमन- समान समर्पित ये जो पात्र और पट आदि असार कर लीजिए कृपा मुझ पर कर कृपानाथ, इनको स्वीकार ॥ ( ४ )
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इस कन्या के पिता और जो हैं इसकी प्यारी माता अब तक सभी भाँति इसके थे एकमात्र वे ही त्राता । धर्म-पिता इस बेचारी के बनिये हे दीनों के नाथ सुता-सदृश पालन करने का काम श्रापही के हाथ ॥
( ५
ताधिक-वत्सलता से इस जन ने भी पाला है। देख इसे रोगार्त तनिक भी सही प्रति की ज्वाला है । आशा यही आप भी इसके सुख-दुख का रक्खेंगे ध्यान और क्या कहूँ क्षमा कीजिए मेरी त्रुटियाँ कृपानिधान ॥
श्रीमान् द्विवेदी जी का स्वास्थ्य पिछली बीमारी से गिर गया है और आप निर्बल हो गये हैं । इस दशा में आपका पुराना उन्निद्र रोग अधिक कष्ट दे रहा है अतएव यहाँ हमारी परमात्मा से प्रार्थना है कि वह आपको इस वृद्धावस्था में स्वस्थ और सुखी रखे ।
हरिऔध जी का सम्मान
इस वर्ष का 'मंगलाप्रसाद - पुरस्कार' हिन्दी के श्रेष्ठ कि पंडित अयोध्या सिह उपाध्याय 'हरिऔध' जी को उनके प्रसिद्ध महाकाव्य 'प्रियप्रवास' पर दिया गया है। हरिश्रौध जी हिन्दी के पुराने महारथियों में हैं और आपकी रचनाओं से हिन्दी साहित्य की काफ़ी गौरव वृद्धि हुई है। आपको साहित्य का यह प्रसिद्ध पुरस्कार बहुत पहले मिल जाना चाहिए
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