________________
संख्या ५
कलिंग युद्ध की एक रात
कर लेना कैसी विचित्र बात है ? इन छः महीनों में मैं पूरे १०० नौजवानों के खून से होली खेल चुका हूँ, और केवल एक बार मेरा बार ख़ाली गया है । सुदक्ष, विचार करो । मेरे और तुम्हारे जैसे पूरे एक सौ जवान जिनके दिल में अपने सम्राट के लिए मर मिटने की प्रबल आकांक्षा और हृदय में निडरता का राज्य था, ऐसे पूरे एक सौ अशोक के सिपाहियों के मैं मौत की गोद सुला चुका हूँ। मेरे इन खूनी हाथों ने उनके सुन्दर शरीरों को सदा के लिए मिट्टी में मिला दिया है। सुदक्ष, तुम जानते हो मुझे सुन्दर चीज़ों से कितना अनुराग है । ग्राह ! यदि हिन्दू-कुलपति कलिंग नरेश का उनके अभिमानी सामन्त सम्राट् अशोक की भेजी हुई सन्धि की शर्तों को इस तरह ठुकराने का परामर्शन देते तो कलिंग की पवित्र भूमि में ये खून की नदियाँ न बहतीं ! जब मैं चारों ओर भूख से विलपते हुए स्वर्णपुर- निवासियों का करुण क्रन्दन सुनता हूँ तब मुझे इन अभिमानी सामन्तों पर अपार क्रोध आता है, दिल चाहता है कि एक एक को पकड़ कर छकड़ों में जोत दूँ । हाँ, सुदक्ष, तुम्हारी उन प्रतिमाओं का क्या हुआ ?
सुदक्ष - मित्र, तुम हमेशा यह बात पूछकर मुझे उदास कर देते हो। क्या बताऊँ ? बहुत दिन हुए मेरे हथियार निकम्मे हो गये। मेरी छैनियों को जंग लग गया है । हथौड़े टूट चुके हैं। वीरसेन, किसी समय मेरे हृदय में उन दिव्य मूर्तियों की सृष्टि होती रहती थी। कभी मैं 'उन सुडौल मूर्तियों को स्वर्णपुर में प्रतिष्ठित करता और 'सत्यं' 'शिवं 'सुन्दरम्' के भाव से अपने देश वासियों के हृदय श्रोत-प्रोत कर देता। मेरी उन दिव्य मूर्तियों पर लोग श्रद्धा के फूल चढ़ाते । ग्राह ! यदि मुझे इस अन्धेरगर्दी से छुट्टी मिल जाती तो यह सब कुछ अब भी हो सकता है । आज भी यदि यह खूनी होली बन्द हो जाय तो मैं अपनी इन दिव्य मूर्तियों से स्वर्णपुर को स्वर्गधाम बना दूँ ।
वीरसेन - श्राह ! क्या ही अच्छा हो यदि हमारे शासक हमसे वह सेवा लें जिसके लिए हम बनाये गये हैं । वह घड़ी भी कैसी शुभ होगी जब हमारे यहाँ 'सत्य' का राज्य होगा । जब एक ऐसे राज्य का निर्माण होगा जहाँ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४५७
लोग एक-दूसरे से ईर्ष्या न करेंगे जहाँ मिथ्या अभि मान न होगा | सुदक्ष, सत्य का यह मार्ग कोई कठिन मार्ग नहीं है। भला बतायो, सम्राट् अशोक से हमारा क्या झगड़ा है । यही न कि कुछ भिक्षुओं का स्वर्णपुर निवासियों ने अपमान किया था और इस बात को भी हुए कई साल हो गये और हम सब भूल चुके हैं । परन्तु मिथ्या अभिमान और झूठे हठ के वश कोई भी पक्ष इस झगड़े का अन्त करने को तैयार नहीं है । कई बार जब मैं अपने विपक्षियों के खून से होली खेलते हुए मगध सेना के डेरों में जाता हूँ तब मेरे दिल में अनायास ही यह विचार उठता है कि 'जिस विपक्षी की मैंने अभी जान ली है उसने मेरा क्या बिगाड़ा था? शायद अवसर मिलने पर हम दोनों एक-दूसरे के मित्र बन जाते और इस राक्षसी कार्य की अपेक्षा हम मानव-जाति की भलाई में लग सकते थे'। मेरे अन्दर अपने प्रति एक विरोध भाव पैदा हो गया है, अपने आपसे घृणा-सी हो गई है। पर दूसरे ही दिन फिर उसी अमानुषिक कृत्य के लिए मैं कमर बाँध कर चल निकलता हूँ, जिससे देश सेवा का ज बीड़ा मैंने उठाया है उस पर हक़ न आये। यह देशसेवा की धुन भी दिमाग़ में लगे हुए एक कीड़े की तरह है जो हमारे अन्दर एक पागलपन-सा पैदा करता रहता सुदक्ष - कौन है ?
।
एक आवाज़ - स्वर्णपुर का दुर्जय खड्ग । मगध की मौत का सन्देश !
चले जाओ कह कर सुदक्ष बोला
वीरसेन, उधर नीचे देखो, कैसा सन्नाटा छाया हुआ है, आकाश में तारे किस तरह जगमगा रहे हैं। भाई सावधान रहना । मुझे इन तारों के प्रकाश से डर लगता है । मेरे कितने ही साथी मुझसे बिछुड़ चुके हैं और इनके चले जाने पर मुझे अपने बचे हुए साथियों से कुछ मोह-सा हो गया है। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे। मुझे कुछ ऐसा वहम सा हो गया है कि ये टिमटिमाते हुए तारे तुम्हारे विरुद्ध कोई कुचक्र रचने के लिए कहीं आज ही रात को न चुन लें 1 मित्र, सावधान रहना ।
www.umaragyanbhandar.com