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उन्नति के पथ पर
लेखक, पण्डित मोहनलाल नेहरू
चासों वर्षों से नवयुवकों के दिमागों में यह बात बुरा समझता है । इसी से युवक उसे बुद्धिहीन कहने लगते
घूमा करती है कि हमारे बाप दादा यदि बेवकूफ़ हैं । जिसे देखो, तरक्की की दोहाई देता है। नहीं तो निरे बकवासी थे । यों तो कुछ न कुछ विचारों तरक्की है क्या ? वर्तमान स्थिति में परिवर्तन । कोई में और उनके प्रकट करने में समय समय पर भेद रहा हो भी किसी बात से सन्तुष्ट नहीं, शायद मौजूदा स्थिति से कभी है, मगर अब उन विचारों का बहाव इसी तरफ़ रहता कोई सन्तुष्ट नहीं रहा। परिवर्तन की या तरक्की की सदा है कि हमारे बाप-दादा निरे बकवासी थे और हम नौजवान चाहना रही है। काम करके दिखानेवालों में हैं।
थोड़े ही दिनों की बात है कि सामाजिक क्षेत्र में स्त्री - हम यह भूल जाते हैं कि बहुधा जो कुछ भी हम कर को किसी परिवर्तन की चाहना न थी। वह अपनी उस सकते हैं वह उसी 'बकवास' का नतीजा होता है या यों ज़माने की दशा से खुश थी और किसी परिवर्तन के पक्षकहिए कि बड़ेा के प्रताप का पुण्य होता है। श्राज-कल पाती को घृणा को दृष्टि से देखती थी। वह दशा अच्छी छुआछूत के खिलाफ बड़े ज़ोर लग रहे हैं। इसी का थी या बुरी, मुझे इससे इस वक्त मतलब नहीं। स्त्री-शिक्षा उदाहरण देना शायद बेजा नहीं। अाज से पचास या के, खासकर उस शिक्षा के जो आज-कल प्रचलित है, साठ वर्ष पहले ऐसे हिन्दू सज्जन हो चुके हैं जिन्होंने फैलाव से उसे अपने व्यक्तित्व का ख़याल पैदा हुआ और छुआछूत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी। पहले वे उसने अपनी दशा के सुधार का आन्दोलन उठाया। नक्कू बने रहे, किन्तु अपनी रट लगाये रहे। उन्हें पश्चिमी देशों में उस आन्दोलन का विरोध हुआ। स्वयं किसी का छुआ खाने की हिम्मत न पड़ी। उनके पुरुषगण ने उसका ख़ासा विरोध किया और मार-पीट बाद की पीढ़ी ने कहा कि कहते तो आप हैं, मगर की नौबत पहुँची, परन्तु आखिर में उसको सफलता मिली। जब खुद न किया तो बकबक से क्या लाभ, हम तो कर यह तरक्की समझी गईं, किन्तु थोड़े ही दिनों में फिर दिखायेंगे। उन्होंने चोरी-छिपे होटलों में खाना-पीना शुरू उसका विरोध उठ खड़ा हुआ और जर्मनी इटली में स्त्री किया, यहाँ तक कि ऐसा करनेवाले एक-दूसरे से छिपकर फिर पुरानी दशा में ढकेल दी गई। उन विरोधियों की होटलों में खाते और पीते भी थे। उनको यह हिम्मत राय में यह तरबक्री हुई। न हुई कि स्वजाति के किसी व्यक्ति के सामने ऐसा पूर्वी देशों में स्त्री-आन्दोलन का विरोध नाममात्र करें। वहाँ तो वे भी बगुला-भगत हो बने रहते । लड़के- को भी नहीं हुआ। पुरुषों ने स्वयं उन्हें बहुत कुछ उसके बालों पर इसका यह असर हुआ कि वे एक कदम आगे लिए उत्साहित किया । भारतवर्ष स्वयं ही दासता में है, देने गये और चोरी-छिपे की रस्म उड़ा दी। यह बुरा हुआ या का सवाल ही क्या ? फिर भी जो कुछ वह दे सका था भला, इससे हमें मतलब नहीं । हमारा तो यह कहना है कि उसमें उसने संकोच नहीं किया । देने या न देने के वास्ते इन्होंने जो कुछ भी किया वह उसी 'बकवास' का नतीजा यह ज़रूरी है कि देनेवाले के पास वह वस्तु हो । यहाँ तो है जो उनके दादा-परदादा किया करते थे। सीढ़ी सीढ़ी आप मियाँ माँगतेवाला मसला है। जो कुछ भी आप देना ये लोग यहाँ तक पहुँचे, मगर स्वयं हर पीढ़ी एक ही चाहें या जो भी परिवर्तन करना हो उसके वास्ते अपने सीढ़ी चढ़ी। फिर यह कहना कि उन्होंने अपने बाप-दादों मालिकों से दरख्वास्त करनी होती है । और वहाँ विरोध से कोई बात ज़्यादा की, झूठा अभिमान है।
मिलता है जैसा कि हिन्दू पुत्री के सम्पत्त्यधिकार कानून . आदमी सदा ही तबदीली चाहता है, जिसे वह तरक्की और अन्तर्जातीय-विवाह कानून की दुर्दशा से साबित है। कहता है और वृद्ध होने पर दूसरों का उससे आगे बढ़ना स्त्री-शिक्षा की. मिसाल लीजिए। थोड़े ही दिन
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