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संख्या ५]
शनि की दशा
• मृत्यु हो जाने पर मेरी क्या दशा होगी। जिसकी दया तक करने का अधिकार दे दिया। इस प्रकार उन्होंने से आज मैं राजराजेश्वरी बनी बैठी हूँ, उसी के अभाव पुत्रवधू को ही सारी सम्पत्ति की एकमात्र स्वामिनी बना में कदाचित् फिर मुझे अाश्रय के लिए भटकना पड़ेगा। दिया और यह भी लिख दिया कि इनकी अनुमति के यही चिन्ता उसे कई दिनों से उद्विग्न कर रही थी। बिना कोई कुछ भी न कर सकेगा, यदि कोई कुछ करेगा
सन्तोषकुमार अत्यधिक हठ के ही कारण कलकत्ते भी तो वह नियमित न माना जा सकेगा। चला गया । वसु महोदय ने उसे बहुत रोका था, परन्तु दानपत्र लिखकर वसु महोदय ने वृद्ध दीवान जी वह किसी प्रकार भी घर रहने को तैयार नहीं हुआ। तथा कलकत्ते से आये हुए चार महानुभावों को साक्षी उसके चले जाने पर वसु महोदय ने मन ही मन यह स्थिर बनाकर उस पर स्वयं हस्ताक्षर किया। रजिस्ट्री करवाने के किया कि यदि कहीं मेरी मृत्यु हो गई और वासन्ती सन्तोष लिए एटी को दे दिया। उन्होंने उससे यह भी कह के हाथ में पड़ गई तो उसकी बड़ी दुर्दशा होगी। सन्तोष दिया कि रजिस्ट्री करवा कर इसे तुम अपने ही पास रक्खे की यह दुर्मति जब तक दूर नहीं होती तब तक वासन्ती का रहो, मेरी मृत्यु होने पर जब श्राद्ध आदि हो जाय तब इसे भविष्य बहुत ही अन्धकारमय बना रहेगा। इसलिए यह वासन्ती को देना। इससे पहले हम लोगों को छोड़ कर . आवश्यक है कि मैं अपने जीवनकाल में ही उसके लिए और किसी के भी कान में यह बात न पड़ने पावे। दूसरे कोई पक्का प्रबन्ध कर दूं, अन्यथा बाद को सन्तोष कहीं दिन वह दानपत्र लेकर वे लोग चले गये। दीवान सदाउसे घर से बाहर न कर दे । जिसने विवाहिता पत्नी की शिव ने एक बार कहा था कि सन्तोष को सम्पत्ति से इस प्रकार की उपेक्षा कर रक्खी है उसके लिए असाध्य बिलकुल ही वञ्चित कर देना उचित न होगा । कुछ भी नहीं है । उसका हृदय आज भी अनादि बाबू इसके उत्तर में वसु महोदय ने कहा- हमारे पिता पितामह की कन्या के ही प्रति अाकर्षित है। बहत सम्भव है कि के पवित्र स्थान में कोई विलायत से लौटे हए- श्रादमी मेरी मृत्यु हो जाने पर वह उसके साथ विवाह भी कर ले। की कन्या पाकर इसे अपवित्र करे, यह मेरे लिए असह्य कदाचित वह मेरी मत्य की ही प्रतीक्षा में रुका भी है। है। यदि कहीं ऐसा हवा तो मेरी प्रात्मा को बड़ा क्लेश यह भी सम्भव है कि विवाह करके वह कलकत्ते में ही बस मिलेगा, स्वर्ग में जाकर भी मैं शान्ति न पा सकूँगा। जाय गाँव की ओर एक बार दृष्टि फेर कर देखे भी उसके अतिरिक्त सन्तोष मूर्ख भी नहीं है, वह पढ़ा-लिखा न । तब तो पूर्वजों का घर और राधावल्लभ का मन्दिर है, अपने निर्वाह के लिए बहुत कुछ कमा लेगा। यह श्रादि नष्ट ही हो जायगा ।
बात सुनते ही दीवान जी चुप हो गये, फिर उन्होंने इस तीन-चार दिन के बाद बसु महोदय के यहाँ विपिन बात की चर्चा नहीं की। बाबू तथा तीन-चार अन्य सजन आकर उपस्थित हुए। दान-पत्र तैयार हो जाने पर वसु महोदय मानो बहुत उन सबसे परामर्श करके उन्होंने एक दान-पत्र तैयार कुछ निश्चिन्त हो गये। इस दान-पत्र के सम्बन्ध में किया। उस दान-पत्र के द्वारा उन्होंने अपनी सारी ज़मी- उन्होंने भौजाई या वासन्ती को कोई भी बात नहीं बतलाई । दारी, कोठियाँ तथा अन्य प्रकार की स्थावर और जंगम वासन्ती वृद्ध की सेवा में तन-मन से लगी रहती, वृद्ध सम्पत्ति का वासन्ती को हो उत्तराधिकारी बना दिया। श्वशुर को सुखी करने के लिए असाध्य साधना करके भी सन्तोषकुमार के लिए उन्होंने उसमें कोई व्यवस्था नहीं वह तृप्ति का अनुभव नहीं करती थी। की। साधारण भत्ता भी नहीं नियत किया। ताई जी के . वासन्ती कभी किसी प्रकार का बनाव-शृङ्गार नहीं लिए यह व्यवस्था हुई कि उन्हें जीवनपर्यन्त दो सौ करती थी। वह सदा ही बहुत सादी पोशाक में रहती रुपये मासिक मिलते रहेंगे। घर में ही वे रहेंगी। तीर्थ- थी। साथ ही उसकी मुखाकृति पर प्रसन्नता की रेखा यात्रा, दान-पुण्य या अन्य धार्मिक कृत्यों के लिए वे भी कभी नहीं दिखाई पड़ती थी। उसकी इस मलिन रियासत से स्वतन्त्र वृत्ति पावेगी। वसु महोदय ने उस छवि पर दृष्टि पड़ते ही वसु महोदय हृदय में अपार दान-पत्र के द्वारा वासन्ती को सम्पत्ति का दान तथा विक्रय वेदना का अनुभव करते थे। उन्होंने सोचा था कि
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