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सरस्वती
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[भाग ३८
......रामस्वामी (सर पी० सी० रामस्वामी अय्यर) विचार-स्वातंत्र्य नेहरू जी की रचना का प्रधान गुण है। चक्करदार जीनों को पार करते हुए गगन-चुम्बी मीनार तीव्र भाषा में खरी बात कहने या प्रकट करने में वे पूर्ण पर चढ़ते चढ़ते चोटी तक जा पहुँचे, जब कि मैं पृथ्वी पर स्वतंत्रता से काम लेते हैं । 'मेरी कहानी' में विचारों के ही पृथ्वी का साधारण प्राणी बना हा हूँ।" (पृष्ठ ७२६) प्रकट करने में पूर्ण स्वतंत्रता पाई जाती है। स्पष्टवादिता की
इसी प्रकार सारी पुस्तक में व्यंग्य-विनोद और मुहा- तो झलक सारे ग्रंथ में है ही। दिखावटी शिष्टाचार से युक्त वरों से भाषा का अोज व्यक्त होता है। यही नहीं, कहीं विचारों का सर्वथा अभाव है। ऐसी शैली पर पंडित जी को कहीं हेडिंग तक विनोदपूर्ण हैं-जैसे ब्रिटिश शासकों पूरा विश्वास भी है। वे स्वयं लिखते हैं-"......जो की हू हू', 'ब्रिटिश शासन का कच्चा चिट्ठा' और 'नाभा का लोग सार्वजनिक कामों में पड़ते हैं उन्हें आपस में एकनाटक' आदि। जहां एक ओर गद्यशैली में मनोरंजकता दूसरे के और जनता के साथ, जिसकी कि वे सेवा करना का ध्यान रक्खा गया है, वहीं दूसरी ओर कवित्व की भी चाहते हैं, स्पष्टवादिता से काम लेना चाहिए। दिखावटी झलक दिखाई पड़ती है। नेहरू जी ने लिखने में जहाँ शिष्टाचार और असमंजस और कभी कभी परेशानी में गम्भीरता धारण की है, वहाँ की भाषा प्रौढ़ और भावना- डालनेवाले प्रश्नों को टाल देने से न तो हम एक-दूसरे पूर्ण हो गई है। प्रत्येक 'चैप्टर' में संसार के दार्शनिकों, को अच्छी तरह समझ सकते हैं और न अपने सामने की कवियों की उत्कृष्ट रचनायें भी उद्धृत हैं। इससे भावु- समस्याओं का मर्म ही जान सकते हैं।" (प्रस्तावना कता और गम्भीरता का पूर्ण अाभास मिलता है। पृष्ठ १०) किन्तु स्पष्टवादिता और विचार-स्वातत्र्य के कारण कविताओं में ही नहीं, गद्य में भी स्थान स्थान पर उनकी कहीं भी विक्षोभ और कटुता का अनुभव नहीं होता, बरन भावुकता प्रकट होती है । महात्मा गांधी और पंडित मोती- पढ़ने पर अानन्द ही आता है । द्वेष या दुर्भावना लेशलाल नेहरू के मिलाप को उन्होंने इस प्रकार लिखा है- मात्र भी कहीं नहीं प्रकट होती । अपने पिता स्वर्गीय पंडित ____ "मनोविश्लेषण-शास्त्र की भाषा में कहें तो यह एक मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी तथा असहयोग और अन्तर्मुख का एक बहिर्मुख के साथ मिलाप था ।” सत्याग्रह में शामिल होनेवाले देशभक्तों की उन्होंने यथा(पृष्ठ ८१)
स्थान चर्चा करते हुए उनके कार्यों की तीव्र आलोचनायें "बरसों मैंने जेल में बिताये हैं ! अकेले बैठे हुए, की हैं, किन्तु ऐसे स्थल भी विनोद और शिष्टता से पूर्ण अपने विचारों में डबे हुए, कितनी ऋतुओं को मैंने एक- ही हैं । लिबरल पार्टी के कार्यों तथा उसके नेताओं की दूसरे के पीछे आते-जाते और अन्त में विस्मृति के गर्भ में टीका-टिप्पणी में भी विचार-स्वातंत्र्य को प्रधानता दी गई लोन होते देखा है ! कितने चन्द्रमाओं को मैंने पूर्ण है, और बड़ी सुन्दरता के साथ उनके वास्तविक विचारों, विकसित और क्षीण होते देखा है और कितने झिलमिल मनोभावों का चित्रण किया गया है, जो शालीनता से युक्त करते तारामंडल का अबाध और अनवरत गति और है। संभवतः ऐसे स्थल विचार-वैषम्य के कारण लिबरलों शान के साथ घूमते हुए देखा है ! मेरे यौवन के कितने को क्षुब्ध करनेवाले हो सकते हैं, किन्तु नरम-गरम का अतीत दिवसों की यहाँ चिता-भस्म हुई है और कभी विचार न करनेवाले पाठकों के लिए सारे ग्रंथ में विचारकभी मैं इन अतीत दिवसों की प्रेतात्माओं को उठते हुए, स्वतंत्रता और स्पष्टवादिता का प्रवाह एक-सा प्रवाहित अपनी दुःखद स्मृतियों को साथ लाते हुए, कान के पास होता ही मिलेगा। इसी प्रकार भारत तथा ब्रिटेन की आकर यह कहते हुए सुनता हूँ 'क्या यह करने योग्य शासन-पद्धतियों पर भी-जो घटनाओं से संबंध रखती हैंथा' ! और इसका जवाब देने में मुझे कोई झिझक नहीं अपना स्पष्ट मत प्रकट किया गया है। विचार-स्वातंत्र्य की है।” (पृष्ठ ७२८)
दृष्टि से इस पुस्तक की समता राजनीति-विषय की कोई यह अवतरण काव्यात्मक शैली का एक सुन्दर उदा- दूसरी पुस्तक नहीं कर सकती है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी इस ग्रंथ का कम महत्त्व विचार-स्वातंत्र्य और ऐतिहासिक महत्त्व नहीं है । इसे हम सन् १९२० से सन् १९३४ तक का
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