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सरस्वती
के दक्षिण-पूर्व की ओर स्थित है। इसकी जन संख्या ३३ हज़ार है । बस्ती गढ़ के बाहर बसी हुई है। गढ़ गिरकर तालाब के पाल सरीखे वन गया है। किले के चारों तरफ़ जल से परिपूरित चौड़ी खाई बनी हुई है। वाई के उस पार और गाँव के बीच में एक टेकरी के ऊपर कुछ मास पहले महामाया का एक स्थान था. और पास ही विशाल वृक्ष उगे हुए थे। गांव के लोग कहते हैं कि वे महामाया को ४-६ पीढ़ी से देखते-सुनते चले आते हैं । महामाया की प्राण-प्रतिष्ठा कब हुई, किराने की और कराई, यह कोई नहीं जानता ।
मन्दिर का भीतरी स्थान १० x १०' के लगभग है । दो तरफ कुछ मूर्तियाँ समूची, कुछ टूटी-फूटी रखी हुई हैं । मन्दिर के चारों तरफ़ का हिस्सा भी बहुत अच्छा
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[महेश्वर के मन्दिर के दरवाजे पर महामाया की मूर्तियाँ ] बाहरी तरफ उसके किनारे हाथियों के खुदाब का काम
अन्य प्रकार की बेल भी खुदी हुई है। जो हिस्मा मन्दिर के चारों तरफ ठीक दिखता है उसकी ऊँचाई नींव से १० या १२ फुट तक है। इन दीवारों के ऊपर गाँव के एक ब्राह्मण ने जो ग्रव सर्वसम्मति से पुजारी बना दिया
कुछ मास हुए उक्त महामाया की प्रेरणा से या उनके पति भगर्भित महेश्वर की प्रेरणा से मलार के मालगुज़ार और ग्रामीण जनता के मन में मन्दिर बनाने की ग्राकांक्षा जाग उठी। लोगों ने दृढ़ संकल्प किया और कार्य भी प्रारम्भ कर दिया। पहले विशाल वृक्ष काटे गये। इसी
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[ भाग ३
समय एक दुर्घटना हो गई। एक उत्साही कृपक वृत्त के गिरने से दबकर मर गया। गाँव का प्रत्येक उत्साही स्त्रीपुरुष कुली बना और महामाया के मन्दिर की नींव खोड़ी जाने लगी। सब कृषक अपना अपना समय बचाकर काम करने लगे । केवल उन्हीं लोगों को मज़दूरी दी जाती थी जिनकी मजदूरी करना ही जीविका थी ।
नींव खोदने पर पत्थरों का सिलसिला तथा महेश्वर के मन्दिर की सीढ़ियाँ मिलने हो प्रेमी स्वयंसेवकों का उत्साह बढ़ गया और उन्होंने धीरे धीरे अनेक देव मूर्तियाँ और महेश्वर का मन्दिर निकाला। इतनी खुदाई के बाद अब पता चला कि महामाया की दो मूर्तियाँ देवली के दोनों तरफ है और बीच में से 9 सीडियों के नांचे संगनसा की जलहरी के मध्य में त्रिकोणाकार महेश्वर विराजमान हैं। ऐसे त्रिकोणाकार शिवलिङ्ग भारत में अत्यन्त विरल है । यथार्थ में महामाया नामक दोनों गतियाँ दरवाज़े की चौखट के दोनों तरफ द्वारपाल-स्वरूप बनाई गई प्रतीत होती है।
[मलार के संग्र
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