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संख्या ५ ]
समानान्तर रेखायें बनी हैं। इसके नीचे एक खिला हुग्रा कमल और उसके दोनों ओर दो बन्द कमल अंकित हैं । छल्ले का और मुहर का कुल वज़न ८२३ तोला है।
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पत्रों पर सब खुदाव २८ सतरों में है और हर तरफ़ सात सात सतरें लिखी हैं । ग्रक्षर " बड़े हैं । इनकी लिखावट महाशिव तीवरदेव के ताम्रपत्रों से मिलतीजुलती है, जो रायपुर - जिले के राजिम और बलोदा ( फुलझर - ज़मीदारी) में पाये गये थे ।
ये ताम्रपत्र चंद्रवंशी राजा हर्षदेव या हर्पगुप्त के पुत्र महाशिवगुप्त राजदेव द्वारा खुदवाये गये थे । राजा महाशिवगुत महेश्वर का बड़ा भक्त था, पर मलार की खुदाई में जो महेश्वर का मन्दिर मिला है वह किसके द्वारा वनवाया गया था, इसका पता नहीं लगता । यद्यपि ताम्रपत्र में कोई भी सन् या संवत् नहीं दिया गया है, तथापि लिपि और मूर्तियों की बनावट इत्यादि और राजाओं के
मलार में महेश्वर
[ सरस्वती की मूर्ति ]
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[ ताम्रपत्र की मुहर ]
नामों पर से दान-पत्रों का रचनाकाल विशेषज्ञों ने सातवीं सदी का प्रथमार्द्ध ठहराया है ।
प्राचीन 'श्रीपुर ' जो ग्राज-काल रायपुर - जिले में 'सिरपुर' के नाम से प्रख्यात है, पहले महाकासल की राजधानी था । ६०० ई० में चीनी यात्री यूनच्चोंग संभवतः इसी श्रीपुर में श्राया था। सिरपुर के राजा चन्द्रवशी थे । वे अपने को पाण्डुवंशी कहते थे । वे वैष्णव थे, पर यालोच्य ताम्र पत्र या दान-पत्र के दाता महाशिव गुप्त ने अपने को 'परम माहेश्वर' लिखा है और उनकी नान्दीअंकित मुद्रा भी उनके महेश्वर भक्त होने का प्रमाण है । गुप्तराज ने तरडंशक भोग के अन्तर्गत कैलासपुर नामक ग्राम बौद्ध भिक्षु संघ को ग्रापाढ़ श्रमावास्या के दिन दान में दिया था और लिखित घोषणा की थी कि जो इस वंश में दान को क्षरण रक्खेगा वह ६०,००० वर्ष तक स्वर्ग भोग करेगा और जो इस दान को क्षुण्ण करेगा वह अनन्त नरक का भागी होगा। कथित ताम्र पत्र इसी दान के अवसर पर लिखकर दिये गये थे ।
मलार के आस-पास कैलासपुर नाम का कोई गाँव नहीं है । कालावधि से कैलासपुर का अपभ्रंश कलसा या
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