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सरस्वती
देता कि अपनी तकदीर के मालिक वे स्वयं हैं । परन्तु युद्ध भूमि की इस उड़ती हुई धूल से मेरे वे स्वर्ण-स्वप्न धुँधले पड़ गये हैं । अब यदि मेरे दिल में कोई इच्छा होती है तो रात को सोने की । ईश्वर
से मेरी एक ही प्राथना होती है - वह में विपक्षियों का सामना करने की उनकी ख़ूनी तलवार से आँखें । हाँ, तुम्हारे उन हाल है ? वसन्तकुमार—वे बहुत दिनों से मेरे हृदय में सोये पड़े हैं । शायद अवसर मिलने पर वे फिर हरे हो जायँ । युद्ध जित - और इधर मौत हर वक्त घात लगाये बैठी है । तुम्हारे हृदय के वे गीत जो भविष्य में मानव समाज की प्रसन्नता का उद्गम हो सकते थे, शायद वे तुम्हारी ज़बान पर आने से पहले ही तुम्हारे साथ ही इस मिट्टी में मिल जायँ और उनके स्थान पर सम्राट् अशोक के इस भयानक युद्ध और बौद्ध भिक्षुत्रों के लोमहर्षण प्रतिशोध की कहानी रह जाय । परन्तु इन दुःखद विचारों में पड़े रहने से क्या लाभ? ये विचार किसी विगत जीवन की भूली हुई स्मृतियों की तरह लौट लौटकर प्रेतात्माओं की तरह मुझे मेरे कर्त्तव्य से विमुख कर रहे हैं। समय हो गया है कि मैं स्वर्णपुर की प्राचीर पर किसी अभागे विपक्षी के शिकार के लिए छिपता हुआ पहुँचूँ । एक स्थान पर जहाँ मैंने तुम्हें एक टूटा हुआ पत्थर दिखाया था, कई रातों के लगातार परिश्रम से मैंने एक सूराख बनाकर पाँव रखने के लिए जगह बना ली है । उसमें पैर रखकर प्राचीर की छत पर चढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होगी। वसन्तकुमार, अंधेरे में एकाएक किसी पर वार करके उसकी जान लेना भी एक खेल है । उसके घावों से बहता हुआ गर्म गर्म खून अभी बन्द होने भी नहीं पाता कि उसका शरीर मांस के लोथड़े को तरह ज़मीन पर गिर पड़ता है। और उसके सगेसम्बन्धी उसके शोक में उसी तरह दुःख से बिलखते हैं, जिस तरह मेरे मरने पर मेरे शोक सन्तप्त श्रात्मज करुण- क्रन्दन करेंगे । वसन्तकुमार, अब मुझे इन बातों से घिन होने लगी है । परन्तु अब तुम्हें सो
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मेरी भुजाओं शक्ति दे या
लिए सतर्क अब क्या
बचने के गीतों का
[ भाग ३
जाना चाहिए। रात बहुत बीत चुकी है और सवेरे तुम्हारा पहरा है ।
(अपने हथियार सँभालकर एक कम्बल प्रोढ़ता है ।) यह तुम क्या पढ़ रहे हो ? वसन्तकुमार-कुछ गीत हैं, जो मेरे देश के एक सुकवि ने रचे थे । इन गीतों में स्वदेश के गगनचुम्बी पर्वतों, विशाल नदियों, सुविस्तृत मैदानों और वनों में क्लाल करनेवाले पक्षियों के कलरव का वर्णन है । यदि समय ने साथ दिया तो मैं भी ऐसे ही अमर गीत बनाया करूँगा ।
युद्ध जित - ठीक है । तुम ऐसे ही गीत बनाया करोगे । (सुराही से थोड़ा पानी उँडेल कर पीता है) हाँ, यदि मुझे लौटने में देर हो जाय तो दिया बुझा कर सो जाना । लो मैं चला ।
वसन्तकुमार - जानो, ईश्वर तुम्हारा सहायक हो । युद्धजित — और नौकर से कहना, थोड़ा पानी भर रक्खे | जब मैं लौटूंगा तब मेरे हाथ किसी के खून से रँगे होंगे ।
( रात के निविड़ अन्धकार को एक बार देखता है और फिर बाहर निकल जाता है ।)
वसन्तकुमार कोई गीत गुनगुनाता है ।
( पर्दा गिरता है)
दूसरा दृश्य
कलिंग की राजधानी स्वर्णपुर के प्राचीर का एक बुर्ज । [ सुदक्ष एक नवयुवक सिपाही नीचे मैदान मेंजहाँ सम्राट् अशोक के असंख्य सैनिक तम्बुओंों में पड़े हैं, नज़र दौड़ाता है । वीरसेन उसका एक और समवयस्क साथी रीछ की खाल ओढ़े उसी की ओर आ रहा है । एक कोने में दीवट पर एक दिया जल रहा है । ] वीरसेन - तुम्हारा पहरा कब ख़त्म होता है ?
सुदक्ष - एक घड़ी तक जब रात आधी बीत जायगी । वीरसेन --नीचे मैदान में मगध-सेना के विस्तृत डेरों में कैसी
ख़ामोशी छाई हुई है ? मैं रात के अँधेरे में परछाई की तरह इनके बीच में जाकर अपनी जन्मभूमि के एक शत्रु की जीवनलीला समाप्त कर परछाई की तरह चुप-चाप वापस लौट ग्राऊँगा । सुदक्ष, इस छोटी आयु में ऐसे खूनी काम में यह निपुणता प्राप्त
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