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एकांकी नाटक
कलिंग युद्ध की एक रात
लेखक, श्रीयुत दुर्गादास भास्कर, एम० ए०, एल-एल० बी० पहला दृश्य
होंगे । पर मेरे भाग्य में वह सब चीजें कहाँ ? अपने
देश की सुरम्य भूमि को छोड़कर मैं अपने जीवन के मा लिंग-युद्ध के अन्तिम दिनों में चक्र
दिन इस सूखे बंजर मैदान में गुज़ार रहा हूँ। यह सब वर्ती सम्राट अशोक की सेनायें
क्यों ? क्योंकि हिन्दू-कुलपति महाराज कलिंग के दर. कि कलिंग की राजधानी स्वर्णपुर को
बार में कुछ बौद्ध भिक्षुत्रों का अपमान हुअा था, घेरे हुए हैं। वसन्त-ऋतु की तारों- इसलिए कलिंग-अधिपति को सम्राट अशोक की
भरी रात है। सम्राट की सेना के अधीनता स्वीकार करनी होगी। उनके अपमान के दो सिपाही युद्धजित और वसन्तकुमार एक तम्बू में बैठे प्रतिशोध के लिए मेरे ईश्वर ! अपने प्यारे देश को हैं। वसन्तकुमार दिये की रोशनी में कोई पुस्तक पढ़ रहा छोड़े हुए मुझे एक साल हो रहा है । ......लेकिन है। युद्ध जित रात के सन्नाटे में आकाश में टिमटिमाते
नहीं। इन बातों से क्या ? तकदीर में यही लिखा हुए तारों को देख रहा है । तम्बू के पीछे एक रक्षक टहल होगा । वसंतकुमार, सुन्दर चीज़ों के विचार-मात्र से रहा है।].
ही हृदय में कसक-सी क्यों उठने लगती है ? युद्धजित-श्राज मुझे अपनी जन्मभूमि की याद फिर वसंतकुमार-इसलिए कि सुन्दरता लोक-पूजित होने पर
तड़फा रही है। तारों के मध्यम प्रकाश में ये सफ़ेद भी स्थिर नहीं है। वह समय के बहाव में बहती सफ़ेद तम्बू कैसे भले मालूम देते हैं, ठीक उसी तरह चली जाती है । कोई चीज़ उसके प्रवाह को रोक नहीं जैसे वसन्त ऋतु की छिटकी हुई चाँदनी में नहाते सकती । हमारी सृष्टि की यही एक करुण कहानी है । हुए हमारे उपवनों के पेड़।
युद्धजित-इस युद्ध के खूनी पंजों में हमें फंसे हुए कितना इस समय हवा के मधुर झोंके मेरे घरवालों को समय बीत चुका है ! जन्मभूमि की किसी अदना थपकियाँ देकर मीठी नींद सुला रहे होंगे । हाँ, शायद । बस्ती की कोई गली भी याद आ जाती है तो हृदय वह मेरी याद में अभी जाग रही हो और इस भयंकर में एक हूक सी उठती है । वसंतकुमार, दिन-रात हम युद्ध से जहाँ क्रूर मृत्यु हर समय घात लगाये बैठी अपने विपक्षियों के खून से होली खेलते हैं, परन्तु है, मेरे बच निकलने की सम्भावना पर विचार कर हमारी नसों में बहनेवाले एक बिन्दु लहू में भी इन रही हो।
स्वर्णपुरनिवासियों के विरुद्ध जिनके खून से हमारे मेरी प्यारी जन्मभूमि जहाँ भीनी भीनी सुगन्धि, हाथ आठों पहर रँगे रहते हैं, ज़रा भी वैरभाव नहीं हवात्रों के कंधों पर लदी रहती है, प्रकृति ने जहाँ है। तुम्हें इस पर कभी हैरानी नहीं हुई ? अपनी निधि को लुटा दिया है, जहाँ फलों से लदे वसंतकुमार-हैरानी ! मुझे तो कोई हैरानी नहीं होती। वृक्ष खड़े हैं, अनन्त का गीत गानेवाले सुन्दर झरने - जो विनाशकारी मृत्यु के साथ रहकर आठों पहर हरी-भरी घाटियाँ, हिमालय की गगनचुम्बी चोटियाँ, उसके रौरव ताण्डव का तमाशा देख रहा हो, जो . यह सब मेरे लिए स्वप्न हो गये हैं । आह ! मेरे प्यारे अपने विपक्षियों पर किये गये एक एक वार के वेद. देश भू-स्वर्ग कश्मीर......वहाँ के काँटों की याद भी नामय अन्त को दिल में लिये फिरता हो, बताओ मुझे तड़फा देती है । शायद मेरे बचपन के नवयुवक उसके खन में वैरभाव कैसे रह सकता है ? और फिर साथी इस समय अपने घरों में अनाज के ढेर लगा हम मुर्दो से वैरभाव भला क्योंकर कर सकते हैं ? रहे होंगे......... । इन दिनों यहाँ कितने ही फल पके युद्धजित, जहाँ मौत विनाश का भयानक खेल खेल
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