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संख्या ५]
शिक्षा और भारतवासी
__ क्या ये भारतमाता के लाल अनपढ़ हैं ? पुराने ज़माने यूनिवर्सिटियों से जैसा हम देखते हैं, देश का फायदा के संस्कृत-पाठशालाओं के विद्यार्थी हैं ? कभी नहीं। ये तो है, हानि बिलकुल नहीं। शिक्षा का प्रचार दिन पर दिन अँगरेजी स्कूलों-कालेजों के ही पढ़े हुए हैं । यूनिवर्सिटियाँ बढ़ना चाहिए । इस गुरुतम कार्य का भार राजा और प्रजा तो हमें आगे बढ़ना ही सिखलाती हैं और हमारी गुलामी दोनों पर है। सरकार के ऊपर इसका विशेष भार है, यह की भावना को दूर करती हैं । कांग्रेस के पिछले आन्दोलन सभी मानते हैं । लेकिन भारत की अँगरेज़ी सरकार, मालूम से भी यह पता चलता है कि पढ़े-लिखों में ही स्वतन्त्रता होता है, हिन्दुस्तानियों के लिए शिक्षा की ज़रूरत नहीं पाने की विशेष अभिलाषा है।
समझती है। शिक्षा के लिए भारत-सरकार का खज़ाना पहले प्रश्न का हमने उत्तर दे दिया। अब हम दूसरे हमेशा खाली रहा है। प्रश्न पर विचार करेंगे।
इसी सरकार ने अपने देश में अगले ५ वर्षों के लिए शिक्षितों में बेकारी ज़रूर है, लेकिन कुछ लोग उसे बजट में यूनिवर्सिटियों के वास्ते करीब ४० लाख रुपया बढ़ाकर भी कहते हैं । अगर एक ग्रेजुएट पुलिस का सिपाही और मंजूर किया है । शिक्षा के लिए यहाँ भारत में फ्री होता है तो लोग हाहाकार करते हैं। क्या यारपीय देशों आदमी ४ आना ३ पैसा सरकारी कोष से प्रतिवर्ष खर्च में ग्रेजुएट पुलिस के सिपाही नहीं हैं ? ज़रूर हैं । इसके होता है, पर फ़ौज का खर्च हर एक आदमी पीछे १ लिए वहाँ लोग शिक्षा-संस्थाओं को कभी दोष नहीं देते हैं, रुपया ९ आना २ पैसा है। बल्कि उद्योग-धन्धों के बढ़ाने की कोशिश करते हैं और सरकार शिक्षा को जैसा चाहिए वैसा प्रोत्साहन नहीं श्रादमी के लिए उपयुक्त काम पैदा करते हैं । बी० ए०, · दे रही है, इसलिए यहाँ के धनी-मानी और दानी सज्जनों एम० ए० पासों की बात छोड़िए, कानपुर के सरकारी को आगे आना चाहिए । भारतवर्ष में अब भी काफ़ी पैसा टेकनिकल स्कूल के पड़े लड़के, डफरिन के शिक्षित केडेट, है, दानियों की भी कमी नहीं है। सिर्फ नदी के बहाव रुड़की के इंजीनियर, कृषिशास्त्र-विशेषज्ञ और डाक्टर को एक तरफ़ से रोक कर दूसरी तरफ़ ले जाना है। जो इत्यादि भी तो काफी संख्या में भारत में बेकार हैं-विदेशी धन मन्दिरों, तालाबों और साधु-सन्तों में खर्च होता है 'डिगरी होल्डर' भी यहाँ बेकार मिल जायेंगे। उसको अब स्कूलों, कालेजों और यूनिवर्सिटियों में खर्च
इससे साफ जाहिर है कि शिक्षा-संस्थानों का बेकारी करना है। इसकी अब सख्त ज़रूरत है। के सवाल से कोई सम्बन्ध नहीं है । बेकारी का सवाल तो अभी हाल में ब्रिटेन के लार्ड नूफ़ील्ड ने आक्सफ़ोर्ड तभी हल हो सकता है जब भारतवर्ष में उद्योग-धन्धों की विश्वविद्यालय को लगभग ३ करोड़ रुपया दान किया है। काफ़ी उन्नति होगी और नये नये कारखाने खुलेंगे, जिनमें वहाँ की जनता की विद्या की तरफ़ कैसी रुचि है, इससे हमारे पढ़े-लिखे नवयुवक अपने योग्यतानुसार काम पायँगे। भली भाँति प्रकट हो जाता है। जिन्होंने काशी-हिन्द
अर्थशास्त्र के प्राचार्य डाक्टर कौल का भी यही विश्वविद्यालय को देखा है वे यह सुनकर अवश्य आश्चर्य कहना है-- “पढ़े-लिखों को काम दिलाने के दो तरीके हैं। करेंगे कि यह सब करामात सिर्फ १३ करोड़ रुपये की है। पहला यह कि राष्ट्रीय आय का एक बड़ा भाग इस समाज उक्त विश्वविद्यालय की महत्ता को देखते हुए ११ करोड़ के हाथ आये और दूसरा यह कि राष्ट्रीय आय बढ़ाई की रकम बहुत थोड़ी मालूम पड़ती है । क्या भारत में जाय ।” चूंकि भारत की वर्तमान दशा में पहले तरीके से नफील्ड नहीं हैं ? क्या यहाँ का एक आदमी ३ करोड़ का कुछ फ़ायदा नहीं होने का, इसलिए दूसरे तरीके से काम दान नहीं कर सकता है ? इन सवालों का जवाब हमारे लेना चाहिए। दूसरे तरीके के माने हैं कृषि तथा व्यापार लक्ष्मीपति भाई ही देंगे। उनके जवाब पर देश का भविष्य की तरक्की ।
. - बहुत कुछ निर्भर करता है।
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