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शिक्षा और भारतवासी
लेखक, श्रीयुत चैतन्यदास
लीगढ़- विश्वविद्यालय' के अर्थ विभाग के प्रधान डाक्टर बी० एन० कौल का कहना है कि 'भारत जैसे देश में जहाँ इतने थोड़े शिक्षित हैं, शिक्षा को रोकना बुद्धि-विरुद्ध है' । अभी हाल में जापान के जगद्विख्यात कवि नगूची ने भी यही बात और ढङ्ग से कही थी ।
जापान में तो ग़रीब से गरीब आदमी अखबार पढ़ता है । जैमिनि मेहता ने हिन्दू विश्वविद्यालय के अपने पार - साल के भाषण में बतलाया था कि जापान ने ६० साल के अन्दर शिक्षा सम्बन्धी आशातीत उन्नति की है । सन् १६३१ में वहाँ १०० आदमियों में ९६ आदमी पढ़े-लिखे थे । हिन्दुस्तान की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट से पता चलता है कि यहाँ उसी समय १०० में सिर्फ ८ पढ़े-लिखे थे । जापान 'जो तरक्की की है वह भारतवासियों से छिपी नहीं है। भारत के व्यवसाय के क्षेत्र में उसका बोलबाला है।
शिक्षा का महत्त्व संसार के सभी राष्ट्र महसूस करने लग गये हैं । इस काम को सभी राष्ट्रों की सरकार दिन पर दिन अपने हाथों में ले रही है । क्यों न हो ? राष्ट्रों की उन्नति और शिक्षा का अभिन्न सम्बन्ध जो है । हम अपने देश में ही देखते हैं। ट्रावेनकोर रियासत बड़ी उन्नति पर है। वहाँ हर साल सरकारी खर्च का २३.२% शिक्षा विभाग पर खर्च किया जाता है जब कि ब्रिटिश भारत में सिर्फ़ ४% शिक्षा के लिए ख़र्च होता है ।
इस समय तो यहाँ लोगों को १८ यूनिवर्सिटियाँ हीं ज्यादा मालूम होती हैं। उधर जर्मनी में जिसकी आबादी ६ करोड़ ६० लाख के लगभग है, उनकी संख्या २३ है । इटली के ४ करोड़ १० लाख की जन-संख्या में २६ विश्वविद्यायल हैं और ब्रिटेन में उनकी संख्या १६ है जब कि उसकी आबादी ४ करोड़ २५ लाख के क़रीब है ।
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शिक्षित बेकारों की बढ़ती हुई संख्या को देखकर देश के कतिपय शिक्षाप्रेमी लोग विश्वविद्यालयों के वर्तमान शिक्षाक्रम को रोक देना या कम कर देना चाहते हैं । लेखक महोदय ने प्रमाण देकर ऐसे लोगों की उस भावना का इस लेख में विरोध किया है।
उपर्युक्त योरपीय यूनिवर्सिटियों में कहीं कहीं २० हज़ार तक लड़के पढ़ते हैं ।
जब हम दूसरे उन्नतिशील देशों की तरफ़ नज़र करते हैं तब हम अपने को बहुत पीछे पाते हैं । हमारी प्रगति इतनी धीमी है कि जिस स्थान से हम बहुत दिन हुए चले थे अभी उसके पास ही हैं। अगर ब्रिटेन के ही उदाहरण को लें तो ग्राज भारत में १२८ यूनिवर्सिटियाँ होनी चाहिए । शिक्षा संस्थानों की कमी का ही यह कारण है कि
भी भारत में १०० में केवल ८ आदमी ही पढ़े-लिखे हैं । अँगरेज़ी पढ़े-लिखों की संख्या तो और भी कम है ।
इस हालत के होते हुए भी कुछ लोग ऐसे हैं जो शिक्षा के सख्त ख़िलाफ़ हैं। वे यूनिवर्सिटियों को गिरा देना चाहते हैं, और कुछ ऐसे भी हैं जिनका यह कहना है। कि हिन्दुस्तान की शिक्षा का तरीक़ा उसकी ज़रूरतों से मेल नहीं खाता श्रतएव यहाँ रोज़ी-रोज़गार सम्बन्धी शिक्षा आदि का भी प्रबन्ध होना चाहिए ।
ऐसे विचार का आधार देश के शिक्षित नवयुवकों की बेकारी है। इसमें शक नहीं कि बेकारी भारत की महामारी है। अपने मुल्क के होनहार लड़कों को बेकार घूमते देखकर किसके दिल में दर्द न पैदा होगा ?
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अब हमारे सामने दो प्रश्न हैं- ( १ ) क्या इन यूनिवर्सिटियों से देश का कुछ लाभ नहीं ? (२) क्या इन्होंने देश में बेकारी को बढ़ाया है ?
पहले प्रश्न के जवाब में हमारे तिलक, गांधी, टैगोर, मालवीय, नेहरू, रमन और बोस आदि हैं। ऐसे लोगों के नामों की सूची यहाँ देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि देश का बच्चा बच्चा उससे वाक़िफ़ है। किसी अमेरिकन ने अभी हाल में कहा था कि संसार में कोई देश ऐसा नहीं है जहाँ तीन तीन महापुरुष एक साथ विद्यमान हों। जर्मनी में सिर्फ़ हिटलर हैं, इटली में मुसोलिनी, लेकिन भारत में गाँधी, टैगोर और नेहरू हैं ।
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